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सन्धि
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जब उस अयोध्यामें नाभिराजा निश्चल और सुन्दर राज्यका भोग कर रहे थे, तब अपने विमानसे मण्डित इन्द्र कालके प्रमाणका ( तीसरे कालके अन्तका ) चिन्तन करता है।
"इस राजाकी मानिनी रानी मरुदेवीके उदरसे छह माहमें परमजिन जन्म लेंगे। भोगके बिना कर्मका नाश नहीं होता। मैं सम्यक्त्वको समग्रता दिखाता हूँ, शीघ्र ही गर्भाशयका शोधन कराता हूँ । लो मेरा यही काम है कि मैं अतिशय सेवाका प्रदर्शन करूं।" यह विचारकर उसने शीघ्र अपने मनमें पीन पयोधरोंवाली छह चन्द्रमुखियोंका ध्यान किया। सुन्दर हाथोंवाली, श्रेष्ठ श्री, ह्री, धृति, उत्तम कान्ति, कीर्ति और लक्ष्मो देवियाँ सुन्दर बोलती हुई प्रणय और नयसे नमन करती हुईं, नीलकमलके समान दीर्घ नेत्रोंवाली वे इन्द्रके घर पहुंचीं। बेलफलकी लताके समान शरीरवाली उनसे देवेन्द्रने शीघ्र कहा
पत्ता-मनुष्यलोकमें जाकर नाभिराजाके, भोगोंका भोग करनेवाले घरमें मरुदेवीकी उस देहका शोधन करो जिसमें पापोंके नाश करनेवाले जिनगभंका निवास होगा ॥१॥
तब करधनियोंसे रमणीय देवस्त्रियाँ चल पड़ी। स्वर्गालयसे निर्गमन करनेवाली, मदसे मन्थर महागजके समान चलनेवाली, त्रैलोक्यके लक्ष्मीपतियोंके मनका दमन करनेवाली, तथा विरक्तोंमें कामदेवकी हलचल उत्पन्न करती हुई, कुण्डलोंसे शोभित कपोलोंवाली वे ऐसी लगती थीं मानो कामदेवने अपनी तीरपंक्ति संभाल ली हो। अपने शरीरके तेजसे आकाशको आलोकित
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