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प्रस्तावना
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"तगह
रागचेतना
'नाभेयचरिउ' से यदि धर्मके अनुशासनको निकाल दिया जाये, तो पूरा काव्य रागचेतनासे भरा हुआ प्रतीत होगा। यह रागचेतना विशुद्ध मानवी रागचेतना है। रागचेतनाका अभिप्राय यहाँ मानवी प्रणयसे है, जिसके मूलमें रति है। रतिकी व्यंजना, व्यक्तिगत दृष्टिसे यद्यपि सम विषम है, परन्तु सामाजिक दृष्टिसे एकदम विषम है। पुष्पदन्त भारतीय सामन्तवादके क्षयकालमें जन्मे थे, जिसमें बहुपत्नीप्रथा विकृतरूपमें प्रचलित थी। सत्ताके विस्तार के साथ, अनेक स्त्रियोंका संग्रह, आज भले ही बुरा माना जाये, परन्तु सामन्तवादी युगमें आध्यात्मिक दृष्टिसे इसका औचित्य यह कहकर सिद्ध किया जाता था कि यह पुण्यका फल है । 'नाभेयचरिउ' में कुछ स्वतन्त्र आख्यान हैं जिनके नायक रागचेतनाके एक-एक क्षणको भोगनेके बाद ही दीक्षा ग्रहण करते हैं: संयोगकी और भी लीलाएँ देख लीजिए :
'काहि वि विरहसिहि पउलिउ पलु धवलुवि कमलु दुवइ णीलुप्पलु सहइ कामु मह समयागमणे
णिहय कावि पिय समयागमणे मउलिय फुल्लिय मल्लिय काणणि मंडणु देइ पुरंधि ण काणणि णिग्गय-पल्लव-णवसाहारहु
मुयइ तित्ति विरहिणि साहारह पई मेल्लेप्पिणु लवइ व कोइल सुहयत्ते किर भूसइ को इल मुइमरु परिमल मिलिय सिलीम्मुह जे ते णं कंदप्प सिलिम्मुह का वि चवइ पिय हवं तुह रत्ती अज्जु गइय महु दुक्खें रत्ती ॥ का वि भणइ पिय करि केसग्गहु वियलउ मालइ-कुसमपरिग्गहु । का वि कहइ लइ चुंवहि वयणउं अवरु म देहि कि पि पडिवयणु' घत्ता-'णउ मेल्लइ कवि बोल्लइ म करहि काई वि विपिउ"
घरु वित्तु वि णिय चित्तु वि सयलु वि तुज्झु समप्पिउ ॥ किसीका मांस विरहकी ज्वालासे पक जाता है और सफेद कमल नीला हो जाता है, वसन्तका समय आ जानेपर भी वह कामको सहन करती है, और प्रियका समय आ जानेपर आहत हो उठती है। वनमें बन्द मल्लिका खिल उठती है परन्तु, वह अपने कानमें उसका अलंकार धारण नहीं करती। नव आम्र वृक्षोंमें पल्लव निकल आये हैं, परन्तु, विरहिणी सहकारमें तृप्त होना छोड़ देती है : पतिको छोड़कर वह कोयलकी तरह बोलती है, आहत होनेपर कौन धरती को अलंकृत करता है। मुख पवनके सौरभसे जो भ्रमर इकट्ठे हो रहे थे, कामदेवके बाणोंके समान थे, कोई कहती है-हे प्रिय, मैं तुममें अनुरक्त है, आजकी रात, दुःखमें कटी है । कोई कहती है-हे प्रिय, तुम मेरे बालोंको बाँध दो । मेरा मालतीके फूलोंसे बँधा हुआ चूड़ापाश गिर रहा है । कोई कहती है, 'लो मेरा मुँह चूम लो और किसी दूसरेको प्रति वचन मत दो। कोई उन्हें नहीं छोड़ती है, और कहती है कि कुछ भी बुरा मत करना । मैंने अपना घर, धन और चित्त सब कुछ तुम्हें सौंप दिया।
कामदेव बाहुबलिके प्रति नगर-वनिताओंके ये उद्गार, हमें भी प्रसिद्ध हिन्दी कवि सूरदासकी गोपियोंकी याद दिला देते हैं, कि जब वे कृष्णकी वंशी की टेर सुनकर, आर्यपथकी जरा भी परवाह न करते
हैं। इसमें सन्देह नहीं यह स्पष्टतः आर्यमर्यादाका उल्लंघन था। परन्ता सामाजिक दष्टिसे जो मर्यादाएँ उचित होती हैं आध्यात्मिक दृष्टिसे वे कभी-कभी त्याज्य हो उठती हैं। यहाँ गोपियाँ, आत्माकी प्रतीक हैं, और कृष्ण ब्रह्म के। दोनों की लीलाके गानका उद्देश्य मनुष्य रागचेतनाको भावनाके स्तर पर आन्दोलित कर व्यापक बनाना है। कृष्णकी यह विशेषता है कि वे लीलाओंमें भाग लेते हुए भी तटस्थ हैं।
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