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कथासार
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सन्धि १४
विजया पर्वतकी विजय । म्लेच्छ मण्डलका पतन । आवर्त और किलातकी हार । सन्धि १५
हिमवन्त पर्वतके लिए कुच । भरत महीधरपर अपना नाम अंकित करता है। उसमें उसने यह लिखा-"मैं कामका क्षय करनेवाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभ जिनका पुत्र हूँ, नामसे भरत, जो धरतीका श्रेष्ठ भरताधिपति माना जाता है। मैंने हिमवन्तसे लेकर समुद्र पर्यन्त धरतीको स्वयं जीता है।" नमि और विनमि राजाओंसे भेंट । कैलास पर्वतपर जाकर वह ऋषभ जिनसे भेंट करता है।
सन्धि १६
दिग्विजयके उपरान्त भरत चक्रवर्ती अयोध्या वापस आता है। परन्तु उसका चक्र नगर सीमाके भीतर प्रवेश नहीं करता। कारण यह था कि बाहबलि सहित भरतके सौ भाई उसके अधीन नहीं थे। भरत अपना दूत भेजता है। उसके सगे भाई, सांसारिक सुखोंके लिए अधीनता स्वीकार करनेके बजाय ऋषभ जिनसे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। बाहुबलि न तो भरतकी अधीनता स्वीकार करता है और न दीक्षा ग्रहण करता है।
सन्धि १७
दोनोंमें युद्ध छिड़ता है । मन्त्री सेनाओंके युद्धको रोककर द्वन्द्व युद्ध की सलाह देते हैं । भरत तीनों युद्धोंमें हार जाता है।
सन्धि १८
बाहुबलि अपने बड़े भाईको पराजयसे दुःखी हो उठते हैं। अनुतापके साथ वे भरतको समझाते हैं और उनसे क्षमा मांगते हैं। वह ऋषभ जिनके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करते है। भरत राजपाट संभालते हैं। कुछ समय बाद भरत ऋषभ जिनवरकी वन्दना करने जाते हैं । वह उनसे बाहुबलिको केवलज्ञान न होनेका कारण पूछते हैं । ऋषभ जिन बताते हैं कि मानकषायके कारण बाहुबलि मुक्तिसे वंचित है। भरत जाकर अपने भाईसे क्षमा याचना करते हैं। बाहुबलिको केवलज्ञान प्राप्त होता है। भरत अयोध्या वापस आकर अपना राज-काज देखते हैं ।
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