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१.८.१०]
हिन्दी अनुवाद
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जिसने जीता है, ऐसा गिरिकी तरह धीर और वीर भैरवराजा हैं । तुमने उस वीर राजाको माना है और उसका वर्णन किया है ( उसपर किसी काव्यकी रचना की है) इससे जो मिथ्यात्व उत्पन्न हुआ है। यदि तुम आज उसका प्रायश्चित्त करते हो तो तुम्हारा परलोक-कार्यं सध सकता है। तुम भव्यजनोंके लिए बन्धुस्वरूप कोई देव हो। तुमसे अभ्यर्थना की जाती है ( मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ ) कि तुम पुरुदेव ( आदिनाथ ) के चरितरूपी भारको इस प्रकार धा दो जिससे वह बिना किसी विघ्नके समाप्त हो जाये ।
घत्ता - उस वाणी से क्या ? अत्यन्त सुन्दर गम्भीर और अलंकारोंसे युक्त होनेपर भी जिससे, कामदेवका नाश करनेवाले आदरणीय अर्हतुकी सद्भावके साथ स्तुति नहीं की जाती ||६||
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तब, अपनी सफेद दन्त पंक्तिसे दिशाओंको धवलित करनेवाला और वरवाणीसे विलास करनेवाला पुष्पदन्त कवि कहता है - "विजयरूपी लक्ष्मीकी इच्छा रखनेवाले पुरुषसिंह देवीनन्दन (भरत) काव्यकी रचना क्यों की जाये ? जहाँ हत दुष्टोंके द्वारा श्रेष्ठ कविकी निन्दा की जाती है, जो मानो ( दुष्ट ) मेघदिनोंकी तरह गो ( वाणी / सूर्यकिरणों) से रहित हैं, ( गो वर्जित ) जो मानो इन्द्रधनुषों की तरह निर्गुण ( दयादि गुणों/ डोरीसे रहित ) हैं, जो मानो जाटोंके घरोंकी तरह मैले चित्तोंवाले हैं । जो मानो विषधरोंकी तरह छिद्रोंका अन्वेषण करनेवाले हैं, जो मानो जड़वादियों की तरह गतरस हैं, जो मानो राक्षसोंकी तरह दोषोंके आकर हैं, तथा दूसरोंकी पीठका मांस भक्षण करनेवाले ( पीठ पीछे चुगली करनेवाले ) हैं, जो ( प्रवरसेन द्वारा विरचित सेतुबन्ध काव्य) बालकों और वृद्धोंके सन्तोषका कारण हैं, जो रामसे अभिराम और लक्ष्मणसे युक्त है, और कइवइ ( कपिपति = हनुमान् — कविपति = राजा प्रवरसेन) के द्वारा विहितसेतु ( जिसमें सेतु - पुल रचा गया हो ) सुना जाता है ऐसे उस सेतुबन्ध काव्यका क्या दुर्जन शत्रु नहीं होता ? ( अर्थात् होता ही है ) ।
घत्ता-न तो मेरे पास बुद्धिका परिग्रह है, न शास्त्रोंका संग्रह है, और न ही किसीका बल है, बताओ मैं किस प्रकार कविता करूँ ? कीर्ति नहीं पा सकता, और यह विश्व सैकड़ों दुष्टजनोंसे संकुल है” ||७||
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यह सुनकर तब महामन्त्री भरतने कहा - " हे गवरहित कविकुलतिलक, बिलबिलाते हुए कृमियोंसे भरे हुए छिद्रोंवाले सड़ी गन्धसे युक्त शरीरको छोड़कर, विवेकशून्य स्याहीकी तरह काले शरीरवाला कौआ, क्या सुन्दर प्रदेशमें रमण करता है ? अत्यन्त करुणाहीन, भयंकर और क्रोध बाँधनेवाला दुर्जन स्वभावसे ही दोष ग्रहण करता है । अन्धकारसमूहको नष्ट करनेवाला और श्रेष्ठ किरणोंका निधान, तथा उगता हुआ सूर्यं यदि उल्लूको अच्छा नहीं लगता तो क्या सरोवरोंको मण्डित करनेवाले तथा विकासकी शोभा धारण करनेवाले कमलोंको भी वह अच्छा नहीं लगता ? तेजको सहन नहीं करनेवाले दुष्टकी गिनती कौन करता है ? कुत्ता चन्द्रमापर भौंका करे ।” तब जिनवरके चरणकमलोंके भक्त काव्यपण्डित ( पुष्पदन्त ) ने कहा
घत्ता - " मैं पण्डित नहीं हूँ, मैं लक्षणशास्त्र ( व्याकरण शास्त्र ) नहीं समझता । छन्द और देशीको नहीं जानता और जो कथा ( रामकथा ) विश्ववन्द्य मुनीन्द्रोंके द्वारा विरचित है उसका मैं किस प्रकार वर्णन करू ? ||८||
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