________________
१६
शान्ते मनसि ज्योति प्रकाशते शान्तमात्मनः सहजम् । भस्मीभवत्यविद्या, मोहध्वान्तं
विलयमेति ।
मन जव शान्त होता है तब शान्त चित्त में आत्मा का सहज शुद्ध स्वभाव प्रकाशित होता है, उस समय अनादिकालीन अविद्या, मिथ्यात्वमोहरूप अन्धकार विनष्ट होता है ।
परमात्मा एवं उसके नाम का लाभ सभी को नही पर सदाचारी, श्रद्धावान् एव भक्तहृदय को हो शीघ्र मिलता है । परमात्मा की अचिन्त्य शक्ति पर मनुष्य को जब पूर्ण श्रद्धा हो जाती है, तब उसकी सातो धातुग्री का रूपान्तर होता है । श्रत. परमात्मा का नाम ही भक्त के लिए ब्रह्मचर्य की दसवीं सुरक्षा पक्ति है । नो सुरक्षा पक्तियो से भी इसका सामर्थ्य पेक्षाकृत अधिक है ।
मंत्रयोग की सिद्धि
मन्त्र शब्दो का समूह है जिनका कोई अर्थ निकलता हो । इन शब्दो के अर्थ का साकार होना ही मन्त्र का सिद्ध होना गिना जाता है । शब्द से वायु पर ग्राघात होता है । जब कोई शव्द वोला जाता है तब अनन्त वायु रूपी महा सागर मे तर गे पैदा होती है। तरगो से गति, गति से ऊष्मा एव उष्मा से स्वास्थ्य सुधरता है । प्रारणायाम का भी यही उद्देश्य है एव वह उद्देश्य मन्त्र जाप से सिद्ध होता है । मन्त्र का जाप हृदय मे से
र्पित भावनाओं को बाहर निकाल अन्त करण को शुद्ध करता है | मन्त्रजाप से ऊपमा वढने से मस्तिष्क की गुप्त समृद्धि का कोष खुल जाता है एवं इसके द्वारा मनोरथ पूरा होता है ।
शब्द-रचना की शक्ति प्रत्यन्त प्रवल होती है । जो काम वर्णों मे नही हो सकता, वह कार्य योग्य शब्द रचना द्वारा थोडे हो क्षरणो मे सम्पन्न हो सकता है । नमस्कार मन्त्र इस कारण