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कमल कीचड के मध्य भी निलिप्त है सुवर्ण जगरहित है जीभ चिकनाहट से भी चिकनी नही होती, अथवा मन्त्र के वर्ण जैसे विषापहार करते है वैसे ही रागादि से भिन्न ज्ञान चेतना कर्मफल के प्रास्वादन का विष हरण कर लेती है एव जीभ, सुवर्ण एव कमल के सदृश रागादि के लेप से रहित रहती है। ऐसा भेदाभेदा अथवा एकत्व पृथकत्व विज्ञान सवर-निर्जरारूप होने से वीतरागिता एव सर्वज्ञता का वीज है। जिसका वचन श्री नमस्कार मन्त्र को होता है क्योकि उसमे केवल ज्ञान चेतना को नमस्कार है, ज्ञान चेतना का बहुमान है तथा है ज्ञान चेतना की उपादेयता का पुन पुन भावन । नमस्कार सम्यक् दृष्टि जीवो का प्राण है। श्री नमस्कार मन्त्र से ज्ञान शक्ति एव वैराग्य शक्ति दृढ एव स्थिर होती है। ज्ञान का अर्थ है शुद्ध चिद्र प स्वरूप का अनुभव एव वैराग्य का अर्थ है परद्रव्य परभावो से भिन्नता की अनुभूति । इस अनुभूति का झुकाव शुद्ध स्वरूप की तरफ होने से द्रव्य कर्म, भाव कर्म एव नो कर्म ( इपत कर्म ) कर्म की तरफ उदासीन भाव सेवित होता है जिससे अशुद्ध परिणति दिन प्रतिदिन घटती जाती है एव शुद्धता बढती जाती है उसी का नाम निर्जरा तत्व है। ज्ञान वैराग्य सम्पन्न सम्यक् दृष्टि जीव वीतराग एव सर्वज्ञ का ही उपासक होता है। श्री नमस्कार मन्त्र मे वीतराग सर्वज्ञ तत्त्व की उपासना होती है । निर्ग्रन्थता वीतरागिता का बीज है एवं ज्ञान चेतना के साथ एकत्व ही सर्वज्ञता का बीज है । ग्रन्थ राग का नाम है। उससे अपने स्वरूप के भेद को जो जानते है एव तदनुसार जीवन जीते हैं वे निर्ग्रन्थ है। जो जानते हुए भी वैसा जीवन जी नही सकते वे अविरति सम्यक् दृष्टि है, एव जो थोडा-थोड़ा जीते है वे देशविरति सम्यक् दृष्टि हैं।