Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 207
________________ यह विनय हो नमस्कार धर्म रूप बनकर कर्म का क्षय करता है। ___ उपकारियो को नमस्कार करने से अपने पर स्थित उनके ऋण से मुक्ति होती है । उनके प्रशस्त अवलम्बन से तथा प्रशस्त ध्यान के बल से कर्मक्षय होता है । बुद्धिबल को विकसित करने हेतु जिस प्रकार अक्षरज्ञान तथा उसके साधनो की आवश्यकता होती है वैसे ही भावनावल को विकसित करने हेतु नमस्कार धर्म तथा उसके सभी साधनो की आवश्यकता है । न्याय, नीति, क्षमा. सदाचार तथा परमेश्वरभक्ति उसके माधन हैं। वे सभी साधन नमस्कारभाव को विकसित करते हैं तथा नमस्कार भाव अहंकार भाव का नाश कर परमात्मतत्त्व के प्रति प्रेम उत्पन्न करता है। . श्री पंच परमेष्ठियो मे प्रकटीभूत परमात्मतत्त्व जब अपने नमस्कार भाव का विषय बनता है तब अन्तर मे स्थित परमात्मतत्त्व जाग्रत होता है तथा सकल क्लेश का नाश कर परमानन्द की प्राप्ति करवाता है । नमस्कार का पर्याय-अहिंसा, संयम एवं तप अन्तर मे करुणा तथा आचरण मे अहिंसा श्रेष्ठ मगल हैं। अहिंसा मे दूसरे जीवो के प्रति तात्त्विक नमन भाव है। सयम तथा तप अहिंसा की सिद्धि हेतु अनिवार्य है। पाचो इन्द्रियो को नियमित करने का ही नाम सयम है तथा मन को नियमित रखना ही तप है । इन्द्रियो तथा मन को अंकुश मे रखे बिना अहिंसा पाली नही जाती तथा अहिंसापालन के बिना नमस्कार भाव की पूर्णतया आराधना नही होती। । अहिंसा के पालन मे प्रभुप्राज्ञा की आराधना है। प्रभुआज्ञा का रहस्य जीव मात्र के आत्मसम स्वीकरण में है।

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