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नमस्कारधर्म की व्याख्याएँ
नमस्कार क्षमा का दूसरा नाम है । भूल होने के पश्चात् उसे सुधार लेने हेतु नम्रता बताने का ही नाम क्षमापना है । अपने द्वारा हुई भूल की क्षमा मागनी तथा दूसरो की भूल को क्षमा करना ही नमस्कार धर्म की श्राराधना है ।
जिस प्रकार ग्रहकार उपकारियो को पहचानने देता नही वैसे ही अपने अपराध को स्वीकार भी करने देता नही । जैसे अहकार उपकारियो को पहचानने नही देता वैसे ही अपने अपराध को भी स्वीकार करने नही देता । जैसे नमस्कार उपकारियो को भूलने नही देता वैसे हो अपने अपराधो को भी भूलने नही देता । उपकार के स्वीकरण की भाति अपराध का स्वीकार भी नमस्कार है । विषयो के प्रति नमनशीलता का त्याग कर परमेष्ठियो के प्रति नमनशीलता का श्रभ्यास करना भी नमस्कार धर्म है । बाह्यपदार्थों के प्रति तृष्णावान नही बनना तथा श्रात्मतृप्त रहने का अभ्यास करना भी नमस्कार धर्म है ।
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जीव श्रपनी जाति, कुल, रूप, बल, लाभ, वृद्धि, वैभव, यश तथा श्रुतादि के प्रति नम्र है ही । नम्रता से उनके प्रति आदर, रुचि तथा सम्मान वताता ही है, पर वह नमनशीलता धर्म रूप नही होती । पूज्य तत्त्वो के प्रति नम्र रहना ही सच्ची नम्रता है ।
सांसारिक पदार्थों के प्रति नमस्कार भाव श्रनादि कुवासमा के योग से होता ही है । उसका स्थान परिवर्तन कर मैत्र्यादि के विषयभूत दूसरे जीवो के प्रति, श्री परमेष्ठि भगवान के प्रति तथा श्रात्मतत्त्व के प्रति नम्र बनना ही धर्म है तथा यही विवेक है । इससे विनय योग्य व्यक्ति के प्रति विनय होता है ।