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परिशिष्ट अकारादि क्रम से - । अष्टप्रवचनमाता-पांच समिति एवं तीन गुप्ति को जैन शास्त्रो
में अप्टप्रवचनमाता का सूचक नाम दिया गया है। जिस प्रकार माता अपने बालक का धारण पोषण एवं रक्षण करती है वैसे ही समिति व गुप्ति के ये आठ प्रकार - प्रवचन अर्थात् चारित्र रूपी बालक का
धारण, पालन व पोषण करती हैं। आस्रव-कर्मो का आगमन द्वार।। उपयोग-जीव का चेतनामय व्यापार । कषाय-जीव के शुद्ध स्वरूप को कलुपित्त करने वाली ' वृत्तियाँ ।कर्म-प्रात्मा के शुद्ध ज्ञानादि गुणो को आच्छा
दित करने वाले कर्म आठ प्रकार के हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय,
मोहनीय श्रायुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय गणधर-तीर्थकर भगवन्त के मुख्य शिष्य । गुप्ति-मन, वचन एव काया का नियमन । ये तीन है
मन.गुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति, ! गुण और पर्याय-द्रव्य के सहवर्ती वर्म को गुण एवं द्रव्य को
क्रमवर्ती अवस्था को पर्याय कहते हैं। चौदहगुणस्थानक--आत्मा के गुणो का क्रमिक विकास बताने
के लिए जैनदर्शन ने चौदह गुणस्थानको का निरूपण किया है। यह प्रात्मा के विकास का कम है।