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तथा रत्नत्रयी को नमन ही भावाभ्यास है । यह त्रिविध नमनक्रिया उत्तरोत्तर श्रात्मोन्नति हेतु प्रक्रिया है ।
छोटा वडे को नमन करता है यह संसार का क्रम है । इसी प्रकार बड़ा छोटे को (छोटा दो हाथ जोडकर वडे को नमन करता है इसी प्रकार भले ही) नमन नही करे पर अपने हृदय मे छोटे को अवश्य स्थान प्रदान करता है, उसका हित चिन्तन करता है, उसे सन्मार्ग मे सयुक्त करता है तथा जिस प्रकार उसका कल्याण हो वैसा विचार करना है-- यह भी एक प्रकार का नमस्कार भाव है |
श्री त्रिभुवनपूज्य हैं, क्योकि वे त्रिभुवन हितंषी है । अपने उपकारी को भूल जाना ग्रहंकार है तथा अपने उपकारी को जीवन भर याद रखना ही नमस्कार है । ग्रहकार पाप का मूल पडने है तथा नमस्कार मोक्ष का मूल है । जैसे दवा के लागू पर दर्द कम पड़ता है वैसे ही नमस्कार लागू पडने पर अहंकार कम हो जाता है । अहंकार का अर्थ है स्वार्थ का भार । जब तक वह नही घटता है तब तक नमस्कार फलान्वित नही कहा जा सकता है ।
अपने सुख का विचार ही स्वार्थ है | स्वार्थ का दूसरा नाम तिरस्कार है । सभी के सुख का विचार ही परमार्थ है । इसका दूसरा नाम नमस्कार भाव है । शरीर के अणु अणु से तिरस्कार रूपी चोरो को भगा देने हेतु नमस्कार को अस्थिमज्जा वनाना चाहिए |
नमस्कार का प्रथम फल पापनाश अथवा स्वार्थवृत्ति का नाश है। दूसरा फल पुण्यवन्ध-शुभ का अनुबन्ध है । नमस्कार से पाप का नाश चाहना चाहिए तथा पुण्य का बन्ध ही नही, अनुवन्ध चाहना चाहिए। उससे जो पुण्यबन्ध हो वह सर्वकल्याण की भावना मे परिरणमित होता है । तिरस्कार के पाप से वचने हेतु नमस्कार ही एक अमोघ साधन है ।