Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 208
________________ आचरण विना की उच्च विचारसरणी भी निष्फल है। विचार का फल प्राचार-है। उसके अभाव मे विचार मात्र वाणी तथा वुद्धि का विलास है। इसी कारण से अहिंसा सयम तथा तप को उत्कृष्ट मगल रूप गिना गया है। जिस प्रकार मैत्री बिना अहिंसा शुष्क है वैसे ही अहिसा रहित मैत्री भी माया है । जैसे वैराग्य रहित सयम शुष्क है वैसे ही सयम रहित वैराग्य भी माया कपट है। जैसे अनासक्ति रहित तप शुष्क है वैसे ही तप रहित अनासक्ति भी आडम्बर मात्र है। अहिंसायुक्त मैत्री, सयममय वैराग्य तथा तपयुक्त अनासक्ति ही तात्त्विक है। करुणाभाव का द्योतक प्रभु के नाम, रूप, द्रव्य तथा भाव इन चारो मे करुणा समाविष्ट है। उसका साक्षात्कार ही आत्मार्थी जीवो का कर्तव्य है अन्यथा कृतघ्नता तथा अभक्ति पोषित होती है । प्रभु के नाम से पाप जाता है तथा पापनाश से दुःख जाता है । प्रभु की प्रतिमा से भी पाप और दु ख नष्ट होते हैं। प्रभु का आत्मद्रव्य तो करुणा से समवेत-समेत है ही तथा भावनिक्षेप से तो प्रभु साक्षात् करुणामूर्ति हैं। ___इस प्रकार प्रभु की करुणा का ध्यान ही भक्तिभावना की वृद्वि का साक्षात् कारण है। करुणाभाव शुद्ध जीव का स्वभाव है तथा वह नाम, 'स्थापना, द्रव्य तथा भाव द्वारा अभिव्यक्त होता है-वाहर “प्रकट रूप से दिखता है। - नामादि चार निक्षपो द्वारा श्री अरिहतादि पांच परमेष्ठियो को होता नमस्कार सभी पापो का तथा दु.खो का नाशकारी होकर करुणाभाव के प्रभाव का द्योतक है तथा उससे भक्तिभाव को बढाने वाला है ।

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