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भव का अन्त या भवभ्रमण प्रभु के अधीन है अथवा प्रभु की प्राज्ञा के अधीन है। आज्ञा की आराधना मोक्ष का तथा विराधना ही भव का कारण है। सवरभाव आज्ञा की आराधना है। सामायिक सवर है तथा नमस्कार सामायिक का साधन है अत नमस्कार भी सवर है सामायिक से अविरति रूपी प्रास्रव का सवर होता है । नमस्कार से मिथ्यात्व रूपी आस्रव का सवर होता है। नमस्कार मे भगवान के स्वरूप का चिन्तन होता है इस निश्चय से निज स्वरूप का ही चिन्तन होता है। श्री जिन की पूजा परमार्थ से निज की ही पूजा है । कहा है कि
अर्थात्- "जिनवर पूजा रे, ते निज पूजना रे" भगवत्स्वरूप के पालम्बन से आत्मध्यान सहज बनता है । समस्त द्वादशागी का सार ध्यानयोग है। ध्यान द्वारा प्रात्म स्वरूप की स्पर्शना होती है । उसे समापत्ति कहते है । श्री नमस्कार मत्र द्वारा उस ध्यान की सिद्धि होती है । कहा है कि
"श्री नमस्कारमंत्रण सकलध्यानसिद्धि ।” मंत्रसिद्धि के लिए अनिवार्य तत्त्व पशुत्व दूसरो के भोग पर स्वय जीने की इच्छा करता है। मनुष्यत्व स्वय के भोग से दूसरो को जिलाने की इच्छा रखता है अथवा स्वय जिस प्रकार जीने की इच्छा रखता है वैसे ही सभी जीने की इच्छा रखने है-इस प्रकार समझ कर सभी के साथ आत्मतुल्य व्यवहार करता है ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान ही तात्विक पशुत्व है। ये ही भावशत्रु है । उन भावशत्रुओ का नाश अपनी आत्मा की तथा जगत के जोवो की शान्ति हेतु अनिवार्य है।