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होते जाप द्वारा ही अनुभूत होता है। नीचे के श्लोक उपर्युक्त अयं को ही कहते है.
एवं च प्रणवेनैतत् , जपात् प्रत्यूहसंक्षय. । प्रत्यक्चैतन्यलाभश्च, युक्तमुक्तं पतञ्जलेः ॥१।। - रजस्तमोमयाहोषाद्विक्षेपाच्चेतसो हमी। सोपक्रमाज्जपान्नाश, यान्ति शक्तिहतिं परे ।२।। प्रत्यक्चैतन्यमप्यस्मादन्तर्योति: प्रथामयम् । वहिर्व्यापाररोधेन, जायमानं मतं हि नः ।।३।।
द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका . . अन्यत्र भी कहा है कि-'सरलता से जपा जा सके ऐसे भगवान का नाम नही जपने वाले एव रसना वशवर्तिनी होने पर भी उसका उपयोग नहीं करने वाले लोग घोर नरक मे जाते हैं-ऐसा देखकर ज्ञानी पुरुषो को सखेद आश्चर्य होता है।
योगातिशयतश्चायं स्तोत्र कोटिगुण. स्मृत.। ' योगहष्ट्या बुधैर्हष्टो, ध्यानविश्रामभूमिका |
-द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका । - अर्थ-'योगाचार्यों ने प्रभु के जाप को स्तोत्र से भी कोटिगुण फलवाला कहा है । इतना ही नही पर जप को ध्यान की विश्रान्ति-भूमिका कहा गया है । बाह्यजगत् में प्रसृत वृत्तियो को खीचकर अन्तर्मुखी बनाने हेतु जाप जरूरी है। जाप से प्राण तथा शरीर समतोल अवस्था को प्राप्त करते हैं तया मन स्थिर तथा शान्त होता है। जप वहिर्वृत्तियो का नाश करता है। उसकी कामना वाले जीवो की कामनापूर्ति कर अन्त में निष्काम बनाता है।
'नमो' मन्त्र मन को कल्पना जाल से मुक्त कर तथा समत्व में प्रतिष्ठित कर अन्तमे आत्म-निप्ठ वनाता है। जप करने वाले को सर्वप्रथम आसन सिद्ध करना चाहिए। प्रासन से देह