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हुआ सामायिकसूत्र से लगाकर बिन्दुसार पर्यन्त श्रुतज्ञान का आराधन है।
पंचनमस्कार रूपी परमधर्म
"पंच-नमुक्कारो खलु, विहिदाण सत्तिओ अहिसा च । . इन्दियकमायविजओ, ऐसो धम्मो सुहपओगो ॥१॥"
-उपदेशपद गा० १६८ अर्थात्-'नर नारकादि परिभ्रमरण रूप ससार ही पारमार्थिक व्याधि है। सभी देहधारी प्राणियो के लिए यह व्याधि साधारण है। शुद्ध धर्म उसका औपध है।' गुरुकुल मे बसने से एव गुरु प्राजानुसार जीवन जीने से शुद्ध धर्म की प्राप्ति होती है। शुद्ध धर्म के चार लक्षण हैं (१) विधियुक्त दान, (२) शक्त्यनुसारी सदाचार, (३) इन्द्रिय-कपाय का विजय, (४) पचपरमेष्ठि नमस्कार । ___ अन्यत्र धर्म के चार प्रकार दान , शील, तप एव भाव, कहे गये हैं। वे ही इस गाथा मे भिन्न प्रकार से कहे गये हैं। विधियुक्त दान ही दानधर्म है, शक्त्यनुसारी सदाचार ही शील धर्म है, इन्द्रिय कपाय का विजय ही तप धर्म है एव पचपरमेष्ठि, नमस्कार ही भावधर्म है।
भाव रहित दानादि जिस प्रकार निष्फल कह गए हैं वैसे ही पचनमस्काररहित दान भी निष्फल ही है। अत सभी धर्मों को सफल बनाने वाला पच नमस्कार ही परम धर्म है ।
मंगल, उत्तम एवं शरण की सिद्धि
नमस्कारभाव प्रात्मा को मन की आधीनता से मुक्त करता है। मन को आत्माधीन बनाने की प्रक्रिया नमस्कारभाव मे निहित है। धर्म की अनुमोदना रूप नमस्कार ही भावधर्म है । दूसरो का आभार नही मानने मे कारणभूत कृपणता