Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 194
________________ ५४ भाव एव प्रकषायभाव की प्राप्ति करवा कर अन्त मे सयोगी तथा प्रयोगीकैवल्य श्रवस्था को प्रदान करवाता है । इसलिए उसमें साबुनमस्कार तथा सिद्धनमस्कार ग्रा जाते हैं । भाव नमस्कार एक अपेक्षा से मग्रहनय की सामायिक है । उसमे स्वरुपास्तित्व तथा सादृश्यास्तित्व रूप मे आत्मतत्त्व की एकता का भान होता है । यह भान श्रनादि अज्ञान ग्रथि का छेदन करता है । अनादि ज्ञानग्रथि का छेद होने से कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म मे सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म की बुद्धि उत्पन्न नही होती तथा प्रनतानुवधी कषायजन्य हिंसादि पापस्थानो का सेवन नही होता है । पुन सुदेव, सुगुरु सुधर्म तथा उन तीनो तत्त्वो को मानने वाले श्री चतुर्विधसघ मे तथा सामिको की भक्ति में प्रमाद नही होता । चैतन्य पर - सामान्य द्वारा आत्मतत्त्व की एकता का बोध होने से वैर-विरोध का नाश होता है, समग्र जीवराशि पर स्नेहपरिणाम की वृद्धि होती है; दान, दया, परोपकारादि गुरगो का विकास सहज बनता है तथा अल्पकाल मे मुक्ति के अनल्प सुखो का लाभ होता है । 1. यह समग्र लाभ श्री नमस्कार मंत्र के प्रथमपद की अर्थभावना के साथ होता जाप प्रदान करवाता है अत उसका जैसे हो वैसे विशेष आदर करना चाहिए । t तीन गुणों की शुद्धि 1 (1 मन-वचन काया के योग तथा ज्ञान दर्शन- चारित्र स्वरूप आत्मा के गुण आदि नवकार के प्रथमपद के स्मरण से शुद्ध होते हैं। तीनो योगो की शुद्धि से देह की वात-पित्त-कफरूपी तीन धातु की विषमता की शुद्धि होती है तथा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपी श्रात्मा की तीन धातुओ ( दधति धारयन्ति जीव 1. t

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