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स्वरूपमिति धातव.
सम्यग्ज्ञानादयः - धर्म बिन्दु प्र० ८ सू० ११ टीका) अर्थात् तीन गुणो की भी शुद्धि होती है । कहा है कि -
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वातं विजयते ज्ञान दर्शनं पित्तवारणम् । कफनाशाय चारित्रं धर्मस्तेनामृतायते ||१||
- पू. उपा श्री मेघविजयजी महाराज कृत
हंद्गीता || ६ | १५ ||
अर्थात् -- ज्ञान से वात दोष जीता जाता है, दर्शन से पित्त दोष जीता जाता है । चारित्र से कफ दोष जीता जाता है । इससे धर्म अमृत के समान काम
करता है ।
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-- रागद्वेप-मोह, श्रात्मा की ज्ञानादि धातुप्रो के वैपम्य से उत्पन्न होने वाले दोष है । वे अनुक्रम से ज्ञान-दर्शन- चारित्र गुरण द्वारा जीते जाते हैं । साथ ही साथ क्रमश मन, वचन तथा काया के योग भी शुद्ध होते है क्योकि ज्ञान मे मनोयोग की प्रधानता है, दर्शन मे स्तुति स्तोत्रादिमय पूजा की मुख्यता होने से वचन योग की प्रधानता है चारित्र मे कायिक क्रियाश्रो की मुख्यता होने से काययोग की प्रधानता है । इस प्रकार विचारने से देह के वातादिजन्य तीनो दोषों को तथा आत्मा के रागादिजन्य तीनो दोषो को विकारो को शुद्ध करने की शक्ति नवकार के प्रथम पद के सात अक्षरमय एक वाक्य मे, अर्थात् उसके तीनो पदो मे भी निहित है ।
'नमो' पद द्वारा मनोयोग की तथा ज्ञानगुण की शुद्धि होती है । अत राग-दोष जीते जाते हैं ।
'अरिह' पद द्वारा वचनयोग की तथा दर्शनगुरण की शुद्धि - होती है । ग्रत द्वेषदोष जीता जाता है।"