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'मातृवत् परवारेपु'
- यह भावना काम तथा राग को शमित करती है । "लोप्टवत्' परद्रव्येषु'
-- यह भावना लोभ तथा मोह को वशवर्ती करती है 'श्रात्मवत् सर्वभूतेषु'
——यह भावना मद, मान, ईर्ष्या असूयादि विकारो को शमित करती है ।
शास्त्र कहते है कि क्षान्त, दान्त तथा शान्त श्रात्मा को ही कोई भी प्रार्थना या मंत्र फलप्रद होता है ।
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श्रहिंसा के पालन से क्रोध जीता जाता है तथा क्षान्त बना जाता है । सयम के पालन से काम जीता जाता है तथा दान्त वना जाता है । तप के सेवन से लोभ जीता जाता है तथा शान्त बना जाता है । काम को जीतने के लिए 'मातृवत् परदारेपु' की भावना कर्त्तव्य है । लोभ को जीतने हेतु "लोष्टवत् परद्रव्येषु" की भावना कर्त्तव्य है । क्रोध को जीतने के लिए आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना कर्त्तव्य है । लोभ को जितने वाला शान्त आत्मा ही सच्चा तपस्वी है, काम को जीतने वाला दान्त श्रात्मा ही सच्चा सयमी है तथा क्रोध को जीतने वाला क्षान्त आत्मा ही सच्चा ग्रहिंसक है । मत्रसिद्धि की योग्यता प्राप्त करने हेतु ये तीनो गुरण प्राप्त करने चाहिए ।
आत्मा ही नमस्कार है
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मंत्र साधना का महत्त्व अर्थ की दृष्टि से नही पर दूसरी दृष्टि से भी है । 'नमो' श्रद्वासूचक है, सर्वज्ञता का बीज होने से 'अरिह' ज्ञानसूचक है तथा मननक्रिया रूप होने से 'ताण' चारित्र सूचक है । इस प्रकार नमो अरिहतारण' मंत्र के तीनो पद रत्नत्रय सूचक है । अनुक्रम से तत्त्वरुचि,