Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 184
________________ ४० अहंकारादि, दोषो का विलोप हो जाता है। अकेला देववाद मानने से दैन्य आता है। अकेला पुरस्कारवाद मानने से अहकार उत्पन्न होता है। अकेला नियति, अकेला काल अथवा अकेला स्वभाववाद मानने से स्वच्छन्दवृत्ति का पोपण होता है। पाचो कारण मिल कर कार्य बनता है ऐसा मानने से एककवाद से पुष्ट होते हुए स्वच्छन्दादि दोपो का निग्रह होता है तथा अच्छे बुरे प्रसगो के समय चित्त का समत्व टिका रहता है। ज्यो-ज्यो समत्व भाव विकसित होता है त्यो त्यो कर्मक्षय वढता जाता है। सम्यक्त्व समत्वभाव रूप है अत उसे समकित-सामायिक कहा जाता है । विरति अधिक समत्व सूचक है अत उसे देशविरति तथा सर्वविरतिसामायिक कहते हैं। अप्रमाद इससे भी अधिक समत्व सूचक है। इससे भी आगे अकषायता अयोगतादि उत्तरोत्तर अधिक समत्व रूप होने से अधिकाधिक निर्जरा के कारण है। विश्व पर पांच समवायो का प्रभुत्व है। अर्थात् समत्व भाव का प्रभुत्व है तथा समत्व भाव पर श्री अरिहतादि चार का प्रभुत्व है । कहा है कि-- काल स्वभाव भवितव्यता, अ सगलां तारा दासो रे । मुख्य हेतु तू मोक्ष नो, अमुज सवल विश्वासो रे। -पू उपा श्री यशोविजयजी महाराज श्री अरिहत, सिद्ध, साधु तथा केवलिप्रज्ञप्तधर्म-इन चारो के आलम्वन से शुभभाव प्रकट होते हैं। ये शुभभाव पाच समवायो पर प्रभुत्व रखते हैं। अत. विश्व के सच्चे स्वामी श्री अरिहतादि चार है। उनका नमस्कार, नमस्कार करने वाले को समय विश्व पर प्रभुत्व प्रदान करवाता है।

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