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पांचों कारणों पर शुभभाव का प्रभुत्व
दुष्कृतगर्दा द्वारा सहजमल का ह्रास होता है । सुकृतानुमोदना के द्वारा तथाभव्यत्वभाव का विकास होता है। शरण गमन द्वारा दोनो ही साधे जा सकते है क्योंकि जिनकी शरणग्रहण की जाती है उनका सहजमल सर्वथा विनष्ट हुया होता है एवं उनका तथाभव्यत्व पूर्ण रूप से विकसित हुआ होता है । परपुद्गल से सम्बन्धित होने की शक्ति को सहजमल कहते हैं। सभी दुष्कृत इसी शक्ति के परिणाम है। जव उस शक्ति का वीज जल जाता है तव परपुद्गल के सम्पर्क में आने की इच्छा मात्र का विलय हो जाता है। पराधीन सुख को प्राप्त करने की इच्छा नष्ट होने से स्वाधीन सुख को प्राप्त करने की इच्छा विकसित होती है. यही तथाभव्यत्व का विकास है।
स्वाधीन सुख प्राप्त हुओ की शरण अचिन्त्य शक्तिशाली है । वह परावीन सुख की इच्छा का नाश करवा कर एव स्वाधीन सुख की इच्छा का विकास करवा कर अन्त मे स्वाधीन सुख को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त करवाकर ही शान्त होती है।
अनादि निगोद में से जीव को बाहर निकालने वाले श्री सिद भगवन्त हैं। उनका ऋण स्वीकार करने वाला उनके सुकृत का निरन्तर अनुमोदन करता है। वे ऋण वह जब तक चुका नही देता तव तक वह अपने उस दुष्कृत की गर्दी करता है।
श्री सिद्ध भगवन्त के उपकार रूपी सुकृत को एव ससार मे अपने द्वारा दूसरों पर किए जाने वाले अपकार रूप दुष्कृत को जो निरन्तर याद करता है उसे सच्चा दुष्कृतगर्हण होता है। गर्हण सहजमल का नाश करता है एवं अनुमोदन भव्यत्वभाव का विकास करता है। उसके प्रभाव से मुक्ति के पांचों कारण श्रा मिलते हैं । अत पाचो कारणो पर शुभ भाव का प्रभुत्व है।