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तत्त्वबोध तथा तत्त्वरमणता रूप अर्थ को बताता है । यह अर्थभेद रत्नत्रयी की दृष्टि से है । अभेद - रत्नत्रयी की दृष्टि से भी उसका अर्थ घटाया जा सकता है । 'अर्हम्' पद की व्याख्या करते हुए श्री सिद्धमवृहद्वृत्ति में कहा है कि --
"प्रणिधानं चाऽनेन सह आत्मन सर्वतः संभेद तदभिवेयेन चाऽभेद । अयमेव हि तात्त्विको नमस्कार इति" ।
अर्थात् - 'अहं' पद का प्रणिधान सभेदप्रणिधान है एवं श्रर्हंपदवाच्य परमात्मस्वरूप की एकता का प्रणिधान प्रभेद - प्रणिधान है । यह अभेदप्रणिधान ही तात्त्विक नमस्कार है । यहाँ 'एव' द्वारा नमस्कार एव श्ररिहत का भेद सूचित किया गया है । जिस प्रकार 'अर्हम्' का अभेदप्रणिधान तात्त्विक नमस्कार है वैसे ही 'त्रारण' भी 'प्ररिहत' परमात्मा ही है । इस प्रकार 'नमो' 'ग्ररिह' एव 'ताण' ये तीनो एक ही अर्थ को सूचित करने वाले बन जाते है ।
'' वाच्य श्री अरिहत परमात्मा का नमस्कार तथा उससे फलित होता त्रारण- रक्षरण एक ही श्रात्मा मे स्थित है । आत्मा ही 'अ' आत्मा ही 'वारण' तथा ग्रात्मा ही 'नमो' नमस्कार रूप है । दूसरे शब्दो मे ग्रात्मा ही ज्ञान, ग्रात्मा ही दर्शन तथा आत्मा ही चारित्र है । यह अभेद रत्नत्रयी भी नमस्कार के प्रथम पद मे निहित है ।
नमस्कार द्वारा विश्व का प्रभुत्व
पांच समवायों का विश्व पर प्रभुत्व है। पांच समवाय अर्थात् पांच कारणो का समुदाय । पाचो कारणो के नाम नुक्रम से काल, स्वभाव, नियति कम तथा पुरस्कार हैं । चित्त को समत्व भाव की शिक्षा पांच कारणवाद के तत्त्वज्ञान से मिलती है । पाच कारणों का समवाय मानने से दीनता,
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