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इन्द्रियो तथा मन पर काबू जव ही हो सकता है कि जब यह स्पष्ट बोध हो जाय कि उनमे विलसित चैतन्य इन इन्द्रियो तथा मन से पृथक है एव अपनी शक्ति द्वारा सभी का सचालन कर रहा है। जो खाता नही पर खिलाता है, जो पीता नही पर पिलाता है, जो सोता नही पर सुलाता है, जो पहनता नही पर पहनाता है, जो प्रोढता नही पर उढाता है, जो वैठता नही पर विठाता है, जो उठता नही पर उठाता है, जो चलता नहीं पर चलाता है, जो देखता नही पर दिखाता है, जो सुनता नही पर सुनाता है जिसे अपन भूल सकते है पर जो अपने को कभी भूलता नहीं, जो सभी इन्द्रियो एव मन को चैतन्यपूर्ण करता
है एव फिर भी वह सभी से परे है, वही ध्येय है, वही उपास्य _ है, वही आराध्य है, वही लोक मे मंगल, उत्तम एव शरण्य है ।
वही स्मरण करने योग्य, स्तुति करने योग्य एव ध्यान करने योग्य है । यह निश्चय जब दृढ होता है तव पाचो इन्द्रियो एव मन पर तथा अपनी समग्र स्वप्रकृति पर जीव काबू प्राप्त कर सकता है।
महामन्त्र की उपासना मे परमध्येय रूप मे उसी परमतत्त्व की ही एक उपासना विविध प्रकार से होती है । अतः उसका जाप तथा स्मरण सतत करने योग्य है ।
'नमो' पद द्वारा परमात्मा के समीप जाया जाता है। 'अरिह' पद द्वारा परमात्मा पकड मे आते हैं। 'तारण' पद द्वारा परमात्मा मे एकाग्रता की बुद्धि होती है।
समग्र तीनो पदो द्वारा तथा उनकी अर्थभावना द्वारा परमात्मा के साथ एकत्व-अभेद का अनुभव होता है । अत 'नमो अरिहताण' महामत्र है।
मत्र का जाप स्थिरचित्त से, स्वस्थगति से तथा मत्रार्थ चिन्तनपूर्वक होना चाहिए। मत्र. मत्रदेवता तथा मत्रदाता गुरु मे दृढ श्रद्धा, ये साधना के तीन चरण हैं। यदि एक भी