________________
५२
नाश होता है तथा मैत्री, मुदितादि निर्मल भावनाएं प्रकट होती है । चिन्मात्र वासना का अर्थ है मन, बुद्धि प्रादि चैतन्य का शुभ व्यापार । उससे कार्याकार्य के विवेकरूपी मद्विचार जागते है तथा अन्त मे उसका भी परमात्म-साक्षात्कार मे लय हो जाता है । सद्विचार तथा सद्विवेक साधन रूप 'पर' ज्ञान है तथा आत्मसाक्षात्कार- परमात्मसाक्षात्कार साव्यरूप 'पर' ज्ञान है | साक्षात् या परम्परा से उभय प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति नमस्कार भाव तथा नमस्कार की क्रिया से सिद्ध होती है । इस सम्बन्ध मे कहा गया है कि-
वन्धो हि वासनाबन्धो, मोन' स्याद् वासनानय । वासनाम्त्व परित्यज्य, मोनार्थित्वमपि त्यज ॥ अर्थ---वासना का बन्ध ही बन्ध है । वासना का क्षय ही मोक्ष है । वासनाओ का त्याग कर तू मोक्षार्थिपन का भी त्याग कर ग्रर्थात् आत्म साक्षात्कार को प्राप्त कर ।
परमेष्ठि नमस्कार से ममत्व की सिद्धिध
चौदहपूर्व तथा द्वादशागी से अपने को जो अनेक प्रकार का प्रकाश मिलता है उनमे से एक प्रकाश यह है कि ग्रात्मदृष्टि से कोई जीव अपने से छोटा नही तथा देहदृष्टि से कोई जीव अपने से बडा नही है । कर्ममुक्त श्रवस्था सव जीवो को समान सुखदायक होती है । कर्मवद्ध अवस्था सबको समान कष्टदायक होती है क्योकि कर्मजनित सुख भी अन्त मे दुखदायक है । सभी जीवो के साथ अपनी तुल्यता का इस प्रकार भावन तथा उससे प्राप्त होता प्रपूर्व समत्व ही मोक्ष का असाधारण कारण है । यह भावना आठो प्रकार के मद को, चारो प्रकार के कपाय को तथा पाँचो प्रकार की इन्द्रियो को विजित कराने वाली होतो है । इससे परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है । श्री पचपरमेष्ठि नमस्कार इस मे भावना से