Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 153
________________ कैवल्य की प्राप्ति भी सुलभ बनती है । कहा गया है कि - 'मोहक्षयान् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च कैवल्यम् ।' श्री तत्त्वार्थसूत्र अ १०-१. मार्ग--दर्शक एवं मागे रूप प्रभु मार्ग-दर्शक एव मार्ग रूप भी हैं। जिस प्रकार भूतकाल मे मार्ग बताकर वे उपकार कर चुके हैं वैसे ही वर्तमान काल मे दर्शन-पूजनादि द्वारा एव तज्जन्य शुभभावादि द्वारा मार्ग रूप बनकर वे उपकार कर रहे है। प्रभु के दर्शनादि से रत्नत्रयी रूप मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति होती है। उसमे प्रभु निमित्तकर्ता है एव शुभ भाव प्राप्त करने वाला जीव उपादानकर्ता है । नामादि द्वारा प्रभु के आलम्बन से मोहनीय आदि कर्म का क्षय क्षयोपशम होता है एव जीव को शुभ भाव रूपी रत्नत्रयी की प्राप्ति होती है। वही मार्ग है एवं उसे प्रदान करने वाले वे ही प्रभु है। शुभ भाव ही मार्ग अथवा तीर्थ है । उसे जो प्रशस्त करे वह तीर्थकर कहलाता है । व्यवहार से तीर्थ के कर्ता श्री तीर्थंकर परमात्मा कहलाते हैं। वह तीर्थ दो प्रकार का है। द्वादशांगी एव उसके रचयिता प्रथम गणधर तथा श्रीसघ बाह्य तीर्थ है | शुभ भाव अभ्यन्तर तीर्थ है । उसके भी प्रयोजनकर्ता, निमित्तकर्ता एव प्रेरणादाता परमात्मा है । अत उनकी भक्ति निरन्तर करनी चाहिये। नवकार मत्र के प्रथम पद से वह भक्ति हो सकती है । जो श्री अरिहन्त भगवान को उनके शुद्ध आत्मद्रव्य से, शुद्ध केवल-ज्ञान गुण से एव शुद्ध स्वभाव-परिणमन रूपी पर्याय से जानता है वही आत्मा

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