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समर्थ की शरण
नमस्कार, वन्दन अथवा प्रणाम सभी दैन्य - भावना के प्रतीक है। जोसर्व ऐश्वर्य सम्पन्न है एव सभी का त्राण-रक्षण करन मे समर्थ है, उनका आत्रय लेने हेतु तथा स्वय की दीनता एव साधनहीनता को प्रकट करने हेतु 'नमो' पद का उच्चारण होता है। ___ जो समर्थ की शरण ग्रहण करता है वही दुस्तर एव दुरत्यय दुःख से पार हो सकता है एव दुरन्त ससार की माया से पार पा सकता है । अन्यत्र भी कहा गया है कि -
देवी ह्य पा गुणमयी, मम माया दुरत्यया
मामेव प्रतिपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते ॥११॥ अर्थात्-'दैवी एव गुणमयी यह मेरी माया दुरत्यय है । जो मेरी शरण स्वीकार करता है वही इस माया से पार पा सकता है।
वर्षा का जल सर्वत्र गिरता है परन्तु वह निचले भू भाग पर ही टिकता है न कि उत्तुग पर्वतो पर । इसी प्रकार प्रभु की कृपा सर्वत्र है पर उसकी अभिव्यक्ति वही होती है जहा दैन्य एव विनम्रता है न कि अहकार अभिमानादि रूप पर्वतीय स्थानो पर।
जीव जब तक दैन्य-श्री से सयुक्त नही होता तब तक उसे भगवत्प्राप्ति नही हो सकती। __ भक्ति, प्रीति, अनुराग अथवा प्रेमसाधना मे एक दैन्य की प्रधानता है । कहा है कि --
पीनोऽह पापपंकेन, हीनोऽहम् गुणसम्पदा । दीनोऽह तावकीनोऽह मीनोऽहं त्वगुणाम्बुधौ ||१||