________________
३१
स्वरूप जिसमे प्रणिधान का विषय वनता है वही अभेद नमस्कार है । उसमें व्याता एवं ध्येय वे हैं जो ध्यान के साथ एकत्व साधते हैं एव तत्र वह आत्मा स्वयं ही परमात्म-स्वरूप वन जाती है ।
सब कुछ पढने के बाद भी अन्त मे परमात्मपद प्राप्तव्य है, यही सभी प्रयोजनों का मौलिभूत प्रयोजन है एवं सभी क्रियाओ की सफलता भी इसी में है ।
जिसमे श्रात्मा लीन होती है उसमे ग्रात्मा तद्रूप बन जाती है । परमात्मपद मे लयभाव की वृद्धि होने से आत्मा परमात्मस्वरूप वन जाती है । इसलिए परमात्म-स्मरण सकल शास्त्रो का सारभूत गिना जाता है ।
श्री नवकार मंत्र का जो विशेष महत्त्व है उसका एक कारण यह भी है कि इसकी शब्दरचना विशिष्ट है ।
उपनिषदो में 'ब्रह्म' को ही 'नम' रूप मानकर उपासना कही गई है। श्री अरिहंतादि पांचो को भी 'नम.' अथवां 'ब्रह्म' रूप मानकर जव उपासना की जाती है तव उपासक तप बन जाता है । उसे ही सच्ची अर्थभावना कहा गया है । उसी से उपासक की सभी कामनाए विलीन हो जाती हैं ग्रर्थात् पूर्ण हो जाती हैं । कहते हैं कि-
'तन्नम इत्युपासीत नम्यन्तेऽस्मै कामा '
1
उपनिषद्
अर्थात् 'नमः' परमात्मा का साक्षात् अक्षरात्मक नाम है । ग्रन्तरग शत्रु को नमाने वाला होने से परमात्मा 'नमो' स्वरूप है | अन्तरग शत्रुओ को नमाने वाले परमात्मा का ध्यान जो कोई करता है उसके काम अर्थात् कामनाओ एव काम विकारो का शमित होना स्वाभाविक है । पुनः गुरण की पराकाष्ठा तक पहुंचे हुए तभी गिने जाते हैं कि जब उनके ध्यानादि से दूसरो मे ये गुण प्रकट होते हैं एवं विरोधी दोष शमित हो