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३. न्याय मागंरति ४. दृढ़ निज-वचन-स्थिति
मनुष्य मात्र मे ये चारो गुण आंशिक रूप में होते ही है। उन्हें अधिक से अधिक विकसाते रहने से महामंत्र की आधिकारिकता प्राप्त होती है। __ भद्रिकपरिणति मे अक्षुद्रता, मध्यस्थता, अक्र रता, सौम्यता, दयालुता, दाक्षिण्यता, वृद्धानुसारिता एवं विनीतता मुख्य है।
निपुणमतिता मे दीर्घदर्शिता, विशेषज्ञता, कृतज्ञता, परार्थता, लब्ध-लक्ष्यता आदि मुख्य हैं।
न्यायमार्गरति में निर्दम्भता, लज्जालुता, पापभीरूता, गुणरागिता आदि मुख्य हैं।
वैसे ही दृढ-निज-वचन-स्थिति में लोकप्रियता, सुपक्षयुक्तता आदि गुण मुख्य हैं।
चौदहपूर्व का सार अभेद नमस्कार
चौदहपूर्वी भी अन्तिम समय मे श्री नवकार का स्मरण करते हैं। इसीलिए नवकार को चौदह पूर्व का सार कहा गया है।
नमस्कार द्रव्य-भाव-संकोच रूप है। द्रव्यसकोच काया एव वचन का है । भावसंकोच मन का है । द्रव्यसकोच द्रव्यनमस्कार रूप है। भावसंकोच भावनमस्कार रूप है। भावनमस्कार, परमार्थ नमस्कार एव तात्त्विकनमस्कार एक हीअर्थ को कहते हैं । तात्त्विक नमस्कार अभेद-प्रणिधान रूप है इसीलिए अभेद प्रणिधान ही चौदह पूर्व का सार है. यह सिद्ध होता है। नमस्कार्य के साथ नमस्कारकर्ता का जो अभेदएकत्व है, उसका जो प्ररिधान है, वही तात्त्विक नमस्कार है।
परमात्मा को उद्दिष्ट कर स्वयं को प्रात्मा का तात्त्विक