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षड्द्रव्य तथा प्रात्म-अनात्म तत्त्व का जान दृढ कर सामायिक की क्रिया द्वारा उस ज्ञान का सम्यक् आचरण किया जा सकता है।
नम्रता एवं मौम्यभाव नम्र जीव ही सुरक्षापूर्वक उन्नति के शिखर पर चढ सकते है। ____नम्रता एव सौम्यभाव रूपी दो अश्वो को नमस्कारभाव रूपी रथ मे सयुक्त कर मोक्षमार्ग के प्रवास की शुरुवात हो सकती है। जहाँ नमस्कारभाव नही वहाँ नम्रता नही एव जहाँ नम्रता नही वहाँ सौम्यभाव नही । सौम्यभाव का अर्थ है समभाव । समभाव के विना किसी भी सद्गुण का सच्चा वास आत्मा में नही हो सकता । अपनी हीनता एव कमियो की बेधडक स्वीकृति के बिना नमस्कारभाव की झांकी भी हो नहीं सकती। नमस्कारभावरहित कोरी नम्रता अहंकारभाव को जन्म देनेवाली है एव ठगारी होती है। ___नमस्कारभाव तीनो जगत के स्वामित्व का वीज है । श्री तीर्थंकर भगवन्त एव श्री सिद्ध भगवन्तो की समस्त ऋद्धिसिद्धि एव प्रात्मसमृद्धि इस नमस्कारभाव मे से ही प्रकट
नमस्कार भाव का एक अर्थ क्षमायाचना है । क्षमायाचना से चित्त प्रसन्न होता है । अर्थात् चित्त मे से खेद, उद्वेग, विषादादि दोप चले जाते है।
नमस्कारभाव का दूसरा अर्थ कृतज्ञता एव उदारता है। नमस्कारभाव द्वारा पर के उपकार का स्वीकरण होता है एव दूसरो पर उपकार करने की प्रवृत्ति पैदा होती है । इसमे एक का नाम कृतज्ञता है एव दूसरी का नाम उदारता है।