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कृतज्ञता गुरण द्वारा पात्रता विकसित होती है । जीव की श्रनादिकाल की योग्यता को अर्थात् अपात्रता को शास्त्रकार सहजमल के शब्द से सम्बोधित करते हैं । सहजमल का कारण जीव का कर्म से सम्बन्धित होना है एव कर्म का सम्बन्ध जीव को विपयाभिमुख बनाता है । विपयाभिमुखता स्वार्थवृत्ति का ही दूसरा नाम है । नमस्वार भाव स्वार्थवृत्ति का उन्मूलन करता है |
जीव की गुप्त योग्यता को शास्त्रकार ' तथाभव्यत्व' शब्द से सम्बोधित करते हैं । इसका परिपाक जीव को धर्म के साथ सम्बन्धित करता है । नमस्कार भाव द्वारा वह योग्यता विकसित होती है तथा वह धर्म तथा धर्मात्मा के साथ सम्वन्धित करवाता है । धर्म तथा धर्मी आत्माओ का सम्बन्ध ममत्वभाव (सौम्य गुण) को विकसित करता है । समत्व भाव की वृद्धि परोपकारभाव को उत्तेजित करती है । परस्पर सहाय तथा शुभेच्छा के बिना किसी भी जीव की प्रगति नही हो सकती । यह कार्य शत्रुता से नही वरन् मित्रता से ही हो सकता है ।
नमस्कार भाव मित्रता के अभ्यास का अमोघ साधन है । नमन शुरू किया नही कि मित्र मिलने लगते हैं - यह सनातन नियम है । मित्र शुभेच्छा लेकर ही आते है । इस प्रकार परम्पर शुभेच्छा की वृद्धि होने से औदार्यभाव विकसित होता है । इन सवका मूल नमस्कारभाव है | नमस्कारभाव से अभ्यस्त होने का बडा मंत्र "नमो अरिहतारा" है जो भाव से नित्य इस मंत्र का स्मरण करते है उनकी अपात्रता नष्ट होती है, पात्रता विकसित होती है, कर्म का सम्वन्ध घटता है स्वार्थवृत्ति घटती है, परार्थवृत्ति वढती है, चित की सकुचितता नष्ट होती है, एव विशालता वढती है साथ ही परिणाम स्वरूप कर्मक्षय होता है तथा परम्परा से मोक्ष मिलता है ।