________________
२२
कहा गया है । 'नमो' पद रूपी सेतु का श्राश्रय लेने से भेदभाव रूपी नदी का उल्लघन होता है एवं अभेदभाव के किनारे पर पहुँचा जाता है एव डूब जाने का भय नहीं रहता। भेदभाव को मिटाकर अभेदभाव पर्यन्त पहँचने का कार्य 'नमो' पद रूपी सेतु की आराधना से होता है। मत्रशास्त्र मे उसे अमात्र पद मे पहुँचाने वाली अर्द्धमात्रा भी कहते हैं। आधी मात्रा मे समग्र ससार समा जाता है एव दूसरी आधी मात्रा सेतु वनकर आत्मा को ससार के उस पार ले जाती है तथा सकल्प-विकल्प से मुक्त करवा कर निर्विकल्प अवस्था तक पहुँचाती है।
'नमो' पद द्वारा मनोगुप्ति साध्य वनती है। मनोगुप्ति के लक्षण निर्धारित करते समय कहा गया है -- .
"विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
आत्माराम मनस्तब्जे मनोगुप्तिरुदाहृता" ॥१॥ अर्थात्-'कल्पना जाल से मुक्ति, समत्व मे सुस्थिति एव यात्मभाव मे परिणति जिससे हो वह मनोगुप्ति है।'
मनोगुप्ति के लक्षण मे प्रथम मन के रक्षण के निषेधात्मक एव वाद मे विधेयात्मक दोनो पहलू वताये गये है।
'विमुक्तकल्पनाजालम्' निषेधात्मक पक्ष है एव 'समत्वे सुप्रतिष्ठित' तथा 'यात्माराम मन' विधेयात्मक पक्ष हैं। श्री नमस्कार मत्र के जाप मे भी दोनो पक्षो का समन्वय है ।
जो काम मनोगुप्ति द्वारा साध्य है, वही कार्य 'नमो' मत्र की पारावना द्वारा सम्भव होता है । अत मनोगुप्ति एव नमो मत्र एक ही कार्य की सिद्धि करने वाले होने से इस अंश मे परस्पर पूरक बन जाते हैं।