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मोक्षमार्ग मे कृपा ही गुन्य है। अौला स्वर्ग का बल अथवा स्वयं को माधना वहां काम नहीं आती।
नर-कर्तनी मे जिम प्रकार पर्वत नहीं भेदा जागाना पर वह इन्द्र-वन से भेदा जाता है बैंग हो पापापी पवंती हो भेदने के लिए भक्तिस्पी बज चाहिए । उसकी प्राप्ति ननाव के अधीन है । वह नम्रभाव नमो' मन्त्र द्वारा मान्य है।
श्रद्धा एवं भक्ति
श्रद्धा मभी क्रियाओं का मूल है। श्रद्धा का मूल जान है. जान का भूल भक्ति है एवं भक्ति के मूल भगवान है । भगवान की शक्ति भक्त के हृदय में भक्ति पैदा करती है। भक्ति द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त होता है। वह आत्मजान श्रद्धा को पैदा करता है। श्रद्धा क्रिया में प्रेरक बनती है। अत. श्रद्धा पुस्पतय है एव भक्ति वस्तुतत्र है।
भक्ति में प्रेरक वस्तु की विशेपता है। श्रद्धा में प्रेरणीय पुरुप की विशेपता है। निमित्त की विशेषता हो भक्तिप्रेरक है । उपादान की विगेपता श्रद्धाजनक है। भक्ति आराध्य में स्थित पाराध्यत्त्र के ज्ञान की अपेक्षा रखती है। यह श्रद्धा क्रिया एव उसके फल मे विश्वास की अपेक्षा रखती है। यह विश्वास क्रिया करने वाले की योग्यता पर आधार रखता है। जब श्रद्धा एव भक्ति एक स्थान पर मिलते है तव कार्य की मिद्धि होती है। __ भगवान के प्रभाव-चिन्तन से भक्ति जाग्रत होती है एवं भक्ति के प्रभाव-चिन्तन से श्रद्धा जागती है।
प्राजा की आराधना श्रद्धा एव भक्ति उभय की अपेक्षा रखता है। प्राज्ञा पालन के प्रति निष्ठा ही भक्ति है। प्राज्ञ पालन के प्रति निष्ठा ही श्रद्धा है। भक्ति मे पाजा-कारक के