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मंत्रोच्चारण मे शब्द द्वारा द्रव्य सकोच होता है एवं शब्दवाच्य अर्थ के चिन्तन द्वारा भाव-सकोच होता है ।
द्रव्य-सकोच का अर्थ है देह एव उसके अवयवो का नियमन एवं भाव सकोच का अर्थ है मन एव उसकी वृत्तियो की निर्मलता ।
महामंत्र के वाच्य श्री परमेष्ठि भगवन्तो का स्मरण देवगुरु का स्मरण करवाता है एव देवगुरु का स्मरण आत्मा के शुद्ध स्वरूप का स्मरण करवाता है । इस प्रकार वह शुद्ध स्वरूप का स्मरण एव अशुद्ध स्वरूप का विस्मरण करवा कर देवगुरू के शुद्ध स्वरूप के साथ श्रात्मा की एकता का ज्ञान करवाता है । दूसरे प्रकार से मंत्र के पवित्र अक्षर प्राणो की शुद्धि करते हैं । शुद्ध प्रारण मन को एव मन द्वारा आत्मा को शुद्ध करते हैं ।
मत्र के शब्दो मे जिस प्रकार प्रारण एव मन द्वारा आत्मा को शुद्ध करने की शक्ति है, वैसे ही स्वयं के वाच्यार्थ द्वारा श्रात्मा को निर्मल करने की सूक्ष्म शक्ति भी निहित है ।
मत्र के वर्ण शब्दों की रचना करते हैं, एवं शब्द उसको वाच्यार्थ से सम्बन्धित कर मानसिक शुद्धि करते हैं । वाचक के प्ररिणधान द्वारा सम्पन्न होती शुद्धि स्थल एवं द्रव्य शुद्धि है वाच्य के प्रणिधान द्वारा होती शुद्धि ही सूक्ष्म एव भावशुद्धि है ।
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मत्र के पद एवं उसके वाच्यार्थ का सतत रटन एव स्मरण करते रहने से वाह्यान्तर-शुद्धि के साथ नित्य नये ज्ञान क प्रकाश मिलता है, अर्थात् मोहनीय कर्म के ह्रास के साथ ज्ञानावरणीय आदि कर्मो का भी ह्रास होता है एव प्रन्त