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तियंच एव विवेक सहित धर्माराधन के लिए मनुष्यभव है। श्री जिनोक्त धर्म मे तीन शक्तियां है जो आने वाले कर्मों को रोकती हैं, पुराने कर्मों को खपाती हैं तथा हितकारी परिणाम वाले शुभास्रव सम्पादित कराती है।।
मिथ्यात्वमोह की उपस्थिति मे दूसरे कर्मों का क्षयोपशम अधिक पाप-कर्म करवाता है । मन्द-मिथ्यात्व एव सम्यक्त्व की उपस्थिति में सभी क्षयोपशम लाभदायक होते है। कर्मकृत अवस्था का नाम ही ससार है एवं उसे टालने का उपाय ही धर्म है। मनुष्यभव मे सम्यक्त्व या मद-मिथ्यात्व की उपस्थिति में उस धर्म का साधन सम्भव है। देवगुरु की भक्ति ही मिथ्यात्व को मन्द करने का एव सम्यक्त्व की प्राप्ति का अमोघ उपाय है । उस भक्ति को करने का प्रथम एव सरल साधन श्री नमस्कार-मन्त्र का स्मरण एवं जाप है।
मानव जन्म मे धर्म की आराधना करने के जो उत्तम अवसर मिलते है उनका लाभ लेने की जिसको तीव्र उत्कठा है उसके लिए श्री नमस्कार मन्त्र एक जडी-बूटी के समान है। द्रव्य-भावसंकोच--काया एवं मन की शुद्धि
नन्दन, नमस्कार, अभिवादन, करयोजन, अग-नमन शिरोवन्दन आदि नमस्कार रूप है। वे द्रव्य-भाव दोनों सकोच रूप है, अभिवादन भाव-सकोच है। उसका अर्थ है प्रत्यक्ष एवं परोक्ष गुणी के गुणो की प्रशंसा तथा उन गुणो के प्रति विशुद्ध . मन की वृत्ति अर्थात् मन की विशुद्ध वृत्ति । इस प्रकार काया की एव वचन की विशुद्ध प्रवृत्ति तथा मन की विशुद्ध वृत्ति मिलकर वन्दन पदार्थ बनता है अर्थात् मन-वचन-काया की विशुद्ध प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम वन्दन है एव उसे ही द्रव्यभाव सकोच भी कहा जाता है ।