Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 150
________________ आत्मा अजर-अमर अविनाशी है - ऐसा स्वसवेद्य ज्ञान परमेष्ठियो की भक्ति के प्रभाव से प्रकट होता है । आत्मज्ञानियो की भक्ति आत्मज्ञान प्रकट करती है । पांचो परमेष्ठि आत्मज्ञानी हैं । अत उनका श्रालम्बन आत्मस्वरूप का ज्ञान प्रदान करने मे पुष्ट-प्रालम्वन वनता है । प्राप्य वस्तु जिसमे हो उसका आलम्बन पुष्टावलम्बन गिना जाता है । श्री परमेष्ठियो का आलम्बन आत्मज्ञान एव निर्भयता दोनो के लिए पुष्टावलम्वन है । मोहविपापहार का महामन्त्र साप का जहर चढने से जिस प्रकार नीम कडवा होते हुए भी मीठा लगता है वैसे ही मोहरूपी सर्प का जहर चढन े से कडवे विपाको को प्रदान करने वाले विपय- कषाय के कडवे रस भी मीठे लगते हैं । सर्प का जहर उतरने के बाद कडवा नीम कडवा लगता है वैसे ही मोहरूपी सर्प का जहर उतरने के वाद विषय कषाय भी कडवे लगते है । जिस प्रकार सर्प के विष को उतारने का मन्त्र होता है, वैसे हो मोहरूपी सर्प के विपय को उतारन े के लिए भी मन्त्र है एव वह देवगुरु का ध्यान है । देवगुरु का ध्यान करने का मन्त्र श्री नवकार मन्त्र है । अत वह मोह - विप उतारने का जाता है । महामन्त्र गिना अविरति, प्रमाद, कषाय एव योग कर्म बध के कारण हैं तथा उसका अनुबन्धक है मिथ्यात्व | श्री नमस्कार मंत्र के श्राराधन से देवगुरु के ध्यान द्वारा कर्म का अनुबन्ध टूट जाता है एव मिथ्यात्व मोह विलीन हो जाता है । चारो गति के भिन्न-भिन्न कार्य हैं । सुख भोगने के लिए स्वर्ग, दुख भोगन े के लिए नरक, अविवेकी व्यवहार के लिए

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