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मंत्र द्वारा मन का रक्षण
मत्र शब्द मन के साथ गाढ सम्वन्ध रखता है । मन एव प्राणो के बीच अविनाभाव सम्बन्ध है । मन का स्पन्दन प्रारणो को स्पन्दित करता है और प्राणो का स्पन्दन मन को चकित करता है ।
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"यत्र मनस्तत्र मरुत्, यत्र मरुत्तत्र मन
मनुष्य की वारणी एव वर्तन भी मन की स्थिति का ही प्रतिविम्व है । अत मन को ही शास्त्रो मे बन्ध एव मोक्ष का कारण कहा गया है। शरीर से जो कुछ काम होते दिखाई देते हैं उनका पूर्ववर्ती प्रेरणा बल मनुष्य के मन मे ही स्थित रहता है । मन शुद्धि पर ही मनुष्य की शुद्धि निर्भर है ।
वाह्य जगत के कार्य इन्द्रियो द्वारा होते दिखाई देते हैं पर वास्तव मे तो ये समस्त क्रियाए मस्तिष्क मे स्थित मन के विविध केन्द्रो द्वारा ही सम्पादित होती हैं । इन्द्रियाँ तो उसके वाह्य करण हैं । ग्रहकार, बुद्धि, चित्त, मन श्रादि श्रान्तर- करण हैं । इन आन्तर करणो के द्वारा ही प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रागम आदि प्रमाणो का बोध होता है । निद्रा, स्वप्न, स्मृति एव मिथ्याज्ञान भी अन्त. करणो द्वारा ही होते है । जाग्रत, स्वप्न एवं निद्रा के उपरान्त एक चौथी अवस्था भी है । जिसे तुरीयावस्था ( उजागर दशा ) कहते हैं । उस अवस्था मे ही जीव को श्रात्म प्रत्यक्ष या आत्मसाक्षात्कार होता है । मन को इस अवस्था के लिए तैयार करने का अमूल्य साधन मन है । मत्र द्वारा मन एकाग्र होता है, शुद्ध वनता है एव अन्तर्मुख बनता है । एकाग्र, शुद्ध एवं अन्तर्मुख वने हुए मन मे विवेक, वैराग्य जागता है उसके पश्चात् शम, दम, तितिक्षा, उपरति श्रद्धा एव समाधान प्राप्त होते है एवं उनसे अध्यात्म मार्ग की यात्रा अग्रसर होती है ।