________________
दूसरा 'म' अक्षर चन्द्रवाचक है।
(कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरि० कृत एकाक्षरी कोप)
मत्र शास्त्र में सूर्य को आत्मा एव चन्द्रमा को मन गिना जाता है इस दृष्टि से 'नमो' पद मे प्रथम स्थान प्रात्मा को प्राप्त होता है एव मन पद मे प्रथम स्थान मन को मिलता है । 'नमो' मत्र द्वारा ससार परिभ्रमण मे परिणमनशील मन का प्रथम स्थान मिट कर आत्मा को प्रथम स्थान मिलता है जिससे ससारपरिभ्रमण का अन्त होता है 'नमो' पद के बारम्बार स्वाध्याय से ऐसा ज्ञान एव ऐसा वोध होता है कि आत्मा मन का स्वामी है, मन आत्मा का स्वामी नही । ___ 'नमो' पद पूर्वक जितने मत्र है वे सब आत्मा को मन की गुलामी से मुक्त कराने वाले होते है। ___मन कर्म का सर्जन है अर्थात् जिसे कर्मवन्धन से मुक्त होना हो उसे सर्व प्रथम मन की अधीनता से मुक्त होना पडेगा। 'नमो' मत्र मन पर प्रभुत्व एव प्रकृति पर विजय करवाने वाला मत्र है। __ 'नमो' मत्र आत्माभिमुख करता है। बहिर्मुख मन को आत्माभिमुख करने का सामर्थ्य 'नमो' मत्र मे है ।
'नमो' पद का अर्थ आत्मा को मुख्य स्थान देना एवं मन तथा उपलक्षण से वचन, काया, कुटुम्ब, धन आदि को गौरण ममझना है। ___ नमो' पद का विशेप अर्थ आत्मा मे ही चित्त, आत्मा मे ही मन, आत्माभिमुख लेश्या, आत्मा का ही अध्यवसाय, अात्मा का हो तीव्र अध्यवसाय, अात्मा मे ही उपयोग एव आत्मा मे ही तीव्र उपयोग धारण करना है। तीनो कारणो एव तीनो योगो को प्रात्म-भावना से ही भावित करना 'नमो' पद का विशिष्ट अर्थ है।