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जिस प्रकार रोग के भय से लोग मिष्ठान्न भोजनादि का त्याग करते है वैसे ही जब दुर्गति का भय व्याप्त होता है तो पाप-व्यापार स्वत. रुक जाते हैं । रोगावस्था मे भोजन करने से रोग बढता ही है यह ध्रुव नियम नही, पर यह तो सर्वांशत सत्य है कि पाप की निरन्तरता से दुर्गति ग्रवश्यंभावी है । ग्रहभावपूर्वक की गई स्वार्थ साधना जीव को अधोगामी बनाती है | नमस्कार भावपूर्वक की गई परमार्थ साधना जीव को ऊर्ध्वगामी बनाती है । नमस्कारभाव द्वारा ही प्रभाव को पृथक किया जा सकता है ।
साध्य को प्राप्त
नमस्कार भाव मे साध्य, साधन एव साधना तीनो की शुद्धि निहित है । 'नमो अरिहतारण' में साधन है, अरिहं सीव्य है एव तारा' - तन्मयता साधना है । प्रथम साध्य को लक्षित करनी 'नमो' 'पद से सम्भव है एवं करना 'तारी' पद से सम्भव है । 'नमो' पद द्वारा साध्य का सम्यक योग होता है, 'अरिह' पद द्वारा साध्य का सम्यक् सोधन होता है एव 'तारणं' पद द्वारा साध्य की सम्यक् सिद्धि होती है ।
आत्म-ज्ञान एवं एवं निर्भयता
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श्री अरिहतादि पचपरमेष्ठि के अतिरिक्त सभी प्राणी सभय है । ये पाच पद सदैव निर्भय है । इसका कारण है उनकी “सकल-तत्त्व-हिताशयता ।" सभय को, निर्भय बनने हेतु सर्वत्र हित चिन्तन रूप मंत्री भाव का एवं इस भाव से सरित श्रीम पचपरमेष्ठि का अवलम्बन है । इस अवलम्वन से संयमुक्ति हो र निर्भयता प्रकट होती है । श्री परमेष्ठियो का लालम्वन श्रात्म-3 ज्ञान;का कारणभूत बनता है । आत्मज्ञान का अर्थ यह ज्ञान है कि मैं आत्मा हूँ. मैं देहादि से भिन्न आत्मस्वरूप हूँ !- जारामरण आदि का भय देह को होता है, आत्मा को नही ।
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