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आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान भी करवाता है। शुद्ध स्वरूप का ध्यान ही अन्त मे मुक्ति प्रदान करवाता है ।
श्री नमस्कार मन्त्र की सिद्धि
बहुत से लोग शारीरिक दु.ख को ही दु ख मानते है । बहुत से उससे आगे बढकर मानसिक दुःखो को दु ख मानते है। उससे भी दो कदम आगे बढकर अनेको जन शारीरिक तथा मानसिक दु.खो की मूल वासना, ममता या तृप्णा ही को दुख मानकर उनके निवारण हेतु प्रयत्न करते हैं। ममता सकुचित न होकर जव व्यापक बनती है तव समता अपने आप आती है। दोनो के मूल मे स्नेह तत्त्व है । जव स्नेह सकीर्ण-सकीर्णतर हो तभी वह ममता कहलाता है । जब वह व्यापक तथा परिपूर्ण बनता है तव समता कहलाता है । सकीर्ण स्नेह ही ममता है । उसमे से जो वासना या तृष्णा उत्पन्न होती है वही वासना आन्तर तथा वाह्य सभी प्रकार के दुखो का मूल है। मनुष्य घर, हाट या वस्त्र के कचरे या मैल को दूर करने में तत्पर रहता है । इसी प्रकार अनाज एव भोजन के कचरे को अप्रमत्तभाव से दूर करता है पर वह मात्र मन के या आत्मा के ममता रूपी मैल या तृष्णा तथा वासनारूपी कचरे को निकालने हेतु तत्परता नही दिखाता है। यह तत्परता शास्त्राभ्यास तथा तत्त्वचिन्तन से प्राती है। शास्त्राभ्यास तथा तत्त्वचिन्तन का वीज श्री नमस्कार मन्त्र है।
श्री नमस्कार मन्त्र के सतत स्मरण तथा चिन्तन से शास्त्राभ्यास के प्रति प्रादर जाग्रत होता है। शास्त्राभ्यास के प्रति श्रादर जाग्रत होने से शास्त्रकार के प्रति आदर जाग्रत होता है, वहुमान उत्पन्न होता है । शास्त्रकार के प्रति बहुमान उत्पन्न होने से तत्त्वचिन्तन गहरा होता है। तत्त्वचिन्तन गहरा होने से