________________
६३
तथा रटन है । परमेष्ठि भले ही वे फिर तीनो काल तथा सर्वक्षेत्र के हो पर जाति से एक है । प्रत. एक का प्रभाव सब मे है एव सब का प्रभाव एक मे है । एक श्री अरिहत के स्मरण मे सबका स्मरण हो जाता है । तीनो भुवनो मे स्थित सारभूत तत्त्व अर्हत्य एव उसका स्मरण एक श्री अरिहत के स्मरण से सम्भव होता है । अत श्री ग्ररिहत के स्मरण का प्रभाव अचिन्त्य है । विश्व को शुभ, शुभतर अथवा शुभतम बनाने वाला अथवा प्रशुभ, अशुभतर अथवा अशुभतम होने से रोकने वाला यदि कोई है तो वह श्री पच परमेष्ठिमय तत्त्व है । यह निश्चय जैसे जैसे दृढ होता जाता है त्यो त्यो श्री हितो का अथवा परमेष्ठियो का स्मरण, भावस्मरण बनकर जीवन का भाव रक्षरण करता है । वही मत्र है जिसका मनन करने से रक्षण हो । प्रत नमस्कार के वर्गों से होता श्री परमेष्ठियो का स्मरण महामंत्र स्वरूप बन परम उपकारक होता है ।
श्री नमस्कार मंत्र का स्मरण
जो श्री जिनशासन का सार है, जिसको ग्रन्त समय मे प्राप्त कर भवसमुद्र तररण किया जाता है तथा जीवन मे अनेक पाप आचरित होते हुए भी जिसके स्मरणमात्र से ही जीव सद्गति को प्राप्त करते है वही श्री पचपरमेष्ठि नवकार महामंत्र प्रचिन्त्य महिमा से भरित है । देवत्व मिलना ग्रासान है, विशाल राज्य, सुन्दर स्त्रियां, रत्न की ढेरियां ग्रथवा सुवणपर्वत मिलने सुलभ है पर श्री नवकार मंत्र मिलना तथा उसके प्रति प्रतरग प्रेम जाग्रत होना सब से अधिक दुर्लभ है । अत प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ मे उसका स्मरण करने का विधान है । चौदह पूर्व को धारण करने वाले भी अन्त समय मे इस महामंत्र का स्मरण करते है |
इसके प्रभाव से स्वयंभूरमण सागर से भी बडा ससार सागर सुखपूर्वक तिरा जा सकता है तथा मोक्ष के अविचल सुख शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त किए जा सकते है । इस महामन्त्र का स्मरण हृदय मे श्रखण्डित रूप से विद्यमान रहे ऐसा