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भव्यत्व के विकास से धर्म के मूल का अभिसिंचन होता है तथा उसकी सिद्धि सुकृतानुमोदन से होती है ।
श्री अरिहतादि का नमस्कार जीव को ससार तथा उसके कारणो से विमुख कर मुक्ति तथा उसके कारणो के अभिमुख करता है। श्री अरिहतादि की शरणयुक्त नमस्कार क्रिया ससार से विमुख कर मोक्ष की सम्मुखता साधित करती है। अत यह नमस्कार क्रिया वारम्बार करणीय है।
विषयो को नमन करने से सहजमल का बल वढता है। परमेष्ठियो को नमन करने से तथा-भव्यत्व भाव विकसित होता है। परमेष्ठि तथा विषय दोनो ही पांच हैं। नमने का अर्थ है शरणगमन । पांच विपयो की शरण जान से चारो कषाय पुष्ट होते है। पच परमेष्ठियो की शरण जान से ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप, प्रात्मा के चार मूलगुण पुष्ट होते है । पुष्टि प्राप्त चारो कषाय चार गति रूप ससार का परिवर्द्धन करते है । पुष्टि प्राप्त ज्ञानादि चारो गुण चारो गतियो का उच्छेदन करते है । चारो गतियो के कारण चारो कषाय हैं। ज्ञानादि गुणो तथा दानादि धर्मों द्वारा चारो प्रकार के कषायो का उच्छेदन होता है।
सम्यक्दर्शनगुण क्रोध-कषाय का, सम्यक्ज्ञानगुण मान कषाय का, सम्यक्चारित्रगुण माया कपाय का तथा सम्यक्तपगुण लोभ कषाय का निग्रह करते हैं । दान धर्म द्वारा मान त्यक्त होता है एव नम्रता गृहीत होती है, शील धर्म द्वारा माया त्यक्त होती है एव सरलता गृहीत होती है, तपोधर्म द्वारा लोभ जीता जाता है एव सन्तोप आता है तथा भावधर्म द्वारा क्रोध जीता जाता है तथा सहनशीलता आती है इन चारो प्रकार के धर्मों के द्वारा एव चारो गुणो की पुष्टि द्वारा चारो गतियो