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इन दोनो प्रकार के मद तथा मान के त्याग का प्रणिधान हो द्रव्य-भाव-संकोच है एव वही नमस्कार का मुख्य प्रयोजन है । ऐसा नमस्कार भाव अथवा उसका लक्ष्य, धर्म के प्रारम्भ मे अतीव आवश्यक है। नमो मन्त्र से अहंता-ममता का त्याग
अहता अथवा ममता ससार मे भटकाने वाली वस्तु है । अहन्ता का अर्थ है 'कर्म का कर्ता मात्र मैं ही हूँ' ऐसी बुद्धि । ममता का अर्थ है 'कर्मफल का अधिकारी मैं हूँ' ऐसी बुद्धि। इन दोनो को निवारने हेतु कर्म का कर्त्ता केवल मैं नही, किन्तु काल, स्वभाव, भवितव्यता एव पूर्व कृत कर्म वगैरह के सहयोग से कर्म हो रहा है ऐसा विचार करना एव कर्म फल भी सब के सहयोग का परिणाम है, उस पर मात्र मेरे अकेले का अधिकार नही, ऐसा विचार करना । नमस्कार के आराधक को अपने सभो कर्म एव उनके फल, जिनको नमस्कार करता है, उन नमस्कार्यों को समर्पित कर देना चाहिए क्योकि निमित्त कर्तव्य उनका है। उनके अवलम्बन से ही कर्म एव उसके फल मे श्रेष्ठता आती है। प्रत्येक शुभ कर्म एवं उसका श्रेष्ठ फल जिसके अवलम्वन से शुभ एव श्रेष्ठ बनता है उनके स्वामीत्व का है, ऐसा व्यवहार नय कहता है। इससे दोनो पर स्वामीत्व उनका है ऐसी वृत्ति धारण करनी चाहिये। उसके परिणामस्वरूप अहत्व-ममत्व गल जाता है एव नम्रता, निरभिमानता, सरलता, सन्तोष आदि गुणो की उत्पत्ति होती है तथा भक्ति के सुमधुर फलो का अधिकारी बन जाता है ।
अव्यय पद व्याकरण शास्त्र के नियमानुसार नमो अव्यय पद है । मोक्ष भी अव्यय पद है। इसमे "नमो" अव्यय, मोक्ष पद का बीज