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मन्त्र से पच परमेष्ठियो का सम्मान होता है। अतः वह बडे से वड़ा दान है, तथा श्री नमस्कार मन्त्र से सभी दुःखी जीवो के दु.ख को दूर करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । अत वह बडी से वडी दया तथा करुणा है। सर्वोत्कृष्ट दया तथा दान से माया तथा मान का नाश करन वाला होने से श्री नमस्कार मन्त्र जीवन मे उत्तम परिवर्तन लाने वाला श्रेष्ठ मन्त्र है।
त्रिकरण योग का हेतु श्री अरिहत, प्राचार्य, उपाध्याय तथा माधु ये सभी सिद्ध अवस्था की पूर्व भूमिकाएं हैं । इसलिए वे परमेष्ठि कहलाते है तथा उनमे सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव तप की सर्वोत्कृष्ट वहाँ सम्पत्तियाँ वसती है। जहाँ चमत्कार से नमस्कार लोभवृत्ति नमस्कार से चमत्कार धर्मवृत्ति है। धर्म का मूल नमस्कार है है तथा धर्म का फल चित्त प्रसाद रूपी पुरस्कार है । धर्म का स्वरूप भावविशुद्धि है। नमस्कार का साक्षात् पुरस्कार चित्त प्रसाद है। चित्त प्रसाद का फल "आत्मीय ग्रह मोक्ष" है अर्थात् पौद्गलिक भावो मे ममत्व वुद्वि का नाश है । धर्म का कोई भी नियम तीन करण तथा तीन योग से ही पूर्ण बनता है । मन से करवाना तथा अनुमोदन करना विश्वहित चिन्तन के भाव के अर्न्तगत आ जाते है। विश्वहित चिन्तन का भाव श्री जिनेश्वरदेव का भाव होने से भव भ्रमण का नियमन करता है। अर्द्धपुद्गल परावर्त से अधिक भव भ्रमण नही होता है । ऐसा नियम मात्र ज्ञान या मात्र चारित्र की अपेक्षा नही रखता है पर श्री जिन वचन, श्री जिन विचार अथवा श्री जिन वर्तन पर आदर भाव की अपेक्षा रखता है । तीन करण एव तीन योग पूर्वक होती धर्म क्रिया विश्वहित चिन्तन का वरण करती हुई भव-भ्रमण को परिमित बनाती है । नमस्कार भी धर्म क्रिया है, अत त्रिकरण योग से करने का विधान है।
सच्ची मानवता जिससे अधिक उपकार हो उसे नमस्कार करना मानवता है । मनुष्य को प्राप्त मन का वह श्रेष्ठ फल है। अत. उपकारियो को नमस्कार करना परम कर्तव्य है। जव अभौतिक चिन्मय