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५७ पिवन्ति नद्य स्वयमेव नाम्भ., स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । नादन्ति सस्यानि खलु वारिवाहाः, परोपकाराय सतां विभूतयः ।।२।। परकार्याय पर्याप्ते, वर भस्म वर तृणम् ।
परोपकृतिमाधातु-मनमो न पुनः पुमान् ।।३।। तथा-सूर्याचन्द्रमसौ व्योम्न , द्वौ नरौ भूषण भुवः । उपकारे मतियस्य, यश्च तं न विलुम्पति ।।४।।
नमस्कार में नम्रता अहिंसादि धर्म मात्र का मूल नम्रता है। धर्म को सानुबन्ध वनाने वाला नमस्कार का भाव है । धर्म प्राप्त करने का पहला सोपान नम्र होना है । जो नम्र नहीं बन सकता है वह धर्म को पहिचान नही सकता है । धर्म को पहिचानने हेतु कर्म के स्वरूप को जानना चाहिए तथा जो कर्म के स्वरूप को जानता है वह अवश्य नम्र बनता है । नम्र वनकर सयमी होने वाली आत्मा आते कर्मों को रोकती है एव पुराने कर्मो को विसेरने का साधन तप है तथा वह उसे करने के लिए सदा उल्लसित रहता है । एक नमस्कार मे अहिंसा, सयम एव तप इन तीनो प्रकार के धर्म के अगो को सम्मिलित करने का सामर्थ्य है । धर्म करके जो गर्व करता है वह धर्म वास्तविक नहीं पर धर्म का आभास मात्र है । कर्म की भयानकता के ज्ञान से होती नम्रता ही वास्तविक नम्रता है। कर्म के स्वरूप का ज्ञान होते ही वह ज्ञान जीव को नम्र बना देता है । कर्म स्वरूप के ज्ञान विना कर्म कीच को निकालने या रोकने की वृत्ति हो नही सकती । नम्रता को पैदा करने वाला तत्वज्ञान यदि नही मिलता है तो आत्मा कर्म का क्षय करने वाले तात्त्विक धर्म को कैसे प्राप्त कर सकती है ? अहिंसा, सयम तथा तपरूपी सत्य धर्म को प्राप्त करने हेतु कर्म की सत्ता वध, उदय तथा उदोरणादि को श्री सर्वज्ञ भगवान से कहा है । उनको जानने से प्राप्त तात्त्विक नम्रता से सच्चे अहिमादि धर्मों की प्राप्ति तथा पालन हो सकता है। विनय नमो का अर्थात् नम्रता का पर्याय है। अष्टकर्म विनयन-दूरीकरण विनय की शक्ति है । उसका अर्थ यह है कि अष्टकर्म के बन्ध मे मुख्य कारणभूत