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पदार्थों से उभयलौकिक उपकार होता है तब भौतिक पदार्थों से होता उपकार केवल एकपक्षीय एव इहलौकिक ज्ञात होता है अत अभौतिक पदार्थ प्रथम नमस्कार के पात्र है। शास्त्र कहते है कि जो दुख मिला है वह अपनी अयोग्यता के मुकाबले थोडा हे ऐसा मानना सीखो एवं जो सुख मिला है वह अपनी योग्यता के मुकाबले अधिक है ऐसा मानना सीग्यो । पुण्य को दूसरो की सहायता के कारण हुअा मानना सीखो एव पाप का कारण अपने को मानना सीखो। पाप के प्रति पक्षपात एव पुण्य के प्रति अरुचि ही समस्त दुखो का मूल है एव उसका कारण कार्य कारण भाव के नियम का अविचार अथवा अजान है। कार्य कारण के अनुरूप होता है । पाप परपीडा रूप है। अत उसका फल दुख है एव पुण्य परपीडा परिहार रूप है अत उसका फल सुख है । सच्चा सुख मोक्ष मे है । पुण्य पाप से रहित अवस्था मे है । जिसको ऊर्ध्वगमन करना है उसे उच्च पदार्थो को नमस्कार करना सीखना चाहिए। उसी मे सच्ची मानवता है। जिस प्रकार नख से अगुली, वाल से सिर तथा वस्त्र से शरीर अधिक मूल्यवान है, वैसे ही शरीर से आत्मा का मूल्य अधिकतम है, ऐसा मानना सीखना चाहिए । धन ग्यारहवां प्राण है। उससे दश द्रव्य प्राणो की अधिकता स्वीकार करनी एवं द्रव्य प्राण से भाव प्राण की विशेषता-अधिकता स्वीकार करने मे ही अविक विवेक है, विचार है एव सत्य का स्वीकार है । परमेष्ठि नमस्कार मे विवेक, विचार तथा सत्य का स्वीकार होने से मानवता की सफलता है।
श्री पंचपरमेष्ठिमय विश्व श्री अरिहत पचपरमेष्ठिमय है। श्री पचपरमेष्ठि की स्तुति ही श्री अरिहत की स्तुति है । श्री अरिहत मे अरिहतपना तो है ही परन्तु उसके अतिरिक्त सिद्धपन भी है । अर्थ की देशना प्रदान करने वाले होने से प्राचार्यपन भी है। श्री गणधर भगवान् को त्रिपदी रूपी सूत्र का दान करने वाले होने से उपाध्यायपन भी है। कचनकामिनी के ससर्ग से अलिप्त, निविषय-चित्त वाले, निर्मम नि सग तथा अप्रमत्तभाव वाले