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मन्त्रात्मक दो पद नमामि सव्व-जिणाणं ।
खमामि सव्व-जीवाणं ॥ भावार्थ-जिनस्वरूप प्राप्त हुए सभी को मैं नमस्कार करता है क्योकि उनकी तरफ से मुझे अनुग्रह प्राप्त होता है कि जिस अनुग्रह से मैं मेरे जिनस्वरूप को प्राप्त करता हूं। जिन स्वरूप को प्राप्त करने मे मुझसे होते प्रमाद, अज्ञान एव मिथ्यात्व को मैं निन्दित करता हू । मेरे उस अपराध हेतु सभी जीवो से क्षमा मांगता हू। सभी जीवो को जिनस्वरूप की प्राप्ति हेतु पालम्बन रूप होने में होते विलम्ब एवं विघ्नरूप मेरे अपराधो के लिए मैं क्षमा मांगता हूं। सभी जीवो! मेरे उन अपराधो को क्षमा करो, मुझे क्षमादान दो।
इस प्रकार अर्थभावनापूर्वक इन दो पदो के ध्यान से एव स्मरण से मेरी प्रात्मा को मैं शुद्ध-निर्मल करता हू। रागादि से भिन्न एव ज्ञानादि से अभिन्न मेरे शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हेतु मन्त्रस्वरूप इन दो पदो का मैं निरन्तर भाव से स्मरण करता हूं।
नमामि सव्व जिणाणं इस मन्त्र से सर्व उपकारियो को नमस्कार है। सबसे श्रेष्ठ उपकार "द्रव्यतया परमात्मा एक जीवात्मा" अर्थात् द्रव्य से परमात्मा ही जीवात्मा है । ऐसा ज्ञान प्रदान करने वालो का है । सभी जिन जीव मात्र को जिनस्वरूप देखते हैं, अजिनस्वरूप को देखते हुए भी नही देखने के बराबर करते हैं एव जिनस्वरूप को आगे कर उत्तेजना प्रदान करते हैं। अत वे सर्वश्रेष्ठ उपकार कर रहे हैं। उनको किया हुआ नमस्कार कृतज्ञतागुण एवं ज्ञानगुण दोनो को विकसित करता है।