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को परिगति से प्रात्मा को छुडाते है। विषयो मे सर्वश्रेष्ठ विपय श्री अरिहंत है। उनके प्रति व्यक्त आदर दूसरे विषयो की तुच्छता का भाव कराता है। जीवो के प्रति अमैत्री ही कपायो का मूल है। श्री अरिहतो को किया हुआ नमस्कार मंत्री सिखाता है जिससे कपाय निर्मूल होते है। विषयकपाय से युक्त आत्मा स्वय चारित्र रूप है । इस प्रकार सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रयी, जिसे मोक्षमार्ग कहा जाता है, वह, नवकार के प्रथम पद मे ही सगृहीत है। इससे उसके पारावक का मोक्ष रूपी ध्येय सिद्ध होता है।
सात धातु एवं दश प्राण नमस्कार कर जो श्री अरिहत की भक्ति करता है वह श्री अरिहत परमात्मा से 'वह तू ही है' (तत्त्वमसि) ऐसा अनुग्रह प्राप्त करता है। अरिहंत तू स्वय है ऐसा आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु श्री अरिहतो की भक्ति अनिवार्य है। जिसकी भक्ति की जाती है उसका स्वरूप भक्त मे प्रकट होता है। श्री अरिहत देव की भक्ति से प्रात्मा मे प्रच्छन्न रूप से स्थित अरिहंत स्वरूप पहले मन-बुद्धि के समक्ष प्रकट होता है । मन और बुद्धि को श्री अरिहत के ध्यान मे पिरोने से उन दोनो के समक्ष भक्त मे निहित श्री अरिहत-स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है । श्री अरिहत की भक्ति का यह प्रभाव है । अत श्री अरिहत की भक्ति मन-वचन-काया से करने, करवाने एवं अनुमोदना से भेदित करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये। वही प्रयत्न करने योग्य है जिसमे सातो धातु भेदित हो जायें एवं दशो प्राण उसमे गुथ जाय । जव शरीर रोमञ्चित हो जाय एव नेत्रो में हर्प के अश्रुनो की धारा बहने लगे तभी समझना चाहिए कि श्री अरिहंत की भक्ति में सातो धातु एव दशो प्राण ओतप्रोत