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निज स्वरूप है एव निज स्वरूप ही जिनस्वरूप है। जिनभक्ति से विपय की विरक्ति एवं जीव-मैत्री से कपाय के त्याग को भी सम्यक चारित्र का संक्षिप्त अर्थ कहा जा सकता है।
___'नमो अरिहताण', श्री अरिहतो की भक्ति जिस किसी प्रकार से हो वह सब नमस्कार रूप है । उस नमस्कार का फल श्री अरिहत भगवान की ओर से 'तत्त्वमसि' जैसे उपदेश के रूप मे मिलता है । जिम अरिहत स्वरूप की तू भक्ति करता है, वह तू स्वय है ऐसा अन्त मे निश्चय होता है। वही भक्ति का पारमार्थिक फल है। 'नमो अरिहताण', मित्रता का महामन्त्र है एव भक्ति का भी महामन्त्र है । श्री अरिहत मैत्रीभाव से अरिभाव को-शत्रुभाव को मारने वाले है, उनको किया गया नमस्कार मैत्री का महामन्त्र बन जाता है। अरिह का अर्थ है शुद्ध प्रात्मा। उनको नमस्कार होने से वह भक्ति का महामत्र बन जाता है । भक्ति एव मैत्री परस्पर अविनाभावी है । एक के विना दूसरे का अस्तित्व असम्भव है।
अात्मस्वरूप की भक्ति तभी पूर्ण मानी जाती है जब साधारण एव निरावरण दोनो प्रकार की आत्मायो के ऊपर स्नेहभाव उत्पन्न होता है । निरावरण स्वरूप के प्रति स्नेह ही प्रमोद एव साधारण स्वरूप के प्रति स्नेह ही करुणामाध्यस्थ्य है। यदि करुणा-माध्यस्थ्य नही हो तो प्रमोद भी सच्चा नही होता है । यदि प्रमोद नही हो तो करुणा-माध्यस्थ्य भी मच्चा नही । जीवतत्त्व की यही सच्ची उपलिब्ध है कि उसमे जीव के दु ख के प्रति सहानुभूति एव करुणा के समान ही उसके सुख के प्रति हर्ष एव प्रमोद होने चाहिए। इस प्रकार भक्ति एव मैत्री दोनो को एक साथ प्रकटित करने वाला मन्त्र श्री नमस्कार महामन्त्र है।