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दुःख भावित ज्ञान अदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ ।
तस्माद्यथावलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः॥ भावार्थ-दु खरहित अवस्था मे भावित पात्मज्ञान दु.ख की अवस्था मे नष्ट हो जाता है। अत. यथाशक्ति कष्ट सहन करते हुए आत्मज्ञान की भावना करनी चाहिये ।
मरणान्त कष्ट के समय भी श्री परमेष्ठि नमस्कार समाधि मे सहायक होता है। उसका कारण है उसमे रागादि से भिन्न वीतराग एव ज्ञानादि से अभिन्न सर्वज्ञ तत्त्व का चिन्तन-भावन होता है । शुद्ध स्वरूप का यथार्थ भावन होने से प्रतिकूल समय मे भी वह ज्ञान विद्यमान रहता है एव प्रानन्द इसको अनुभूति करवाता है । अनुकूल समय तीनो कालों मे एव प्रतिकूल समय में बार-बार श्री नमस्कार मन्त्र को भावित करने का आदेश है, तत्पश्चात् आत्मज्ञान को दुख मे एव सुख मे भी भावित कर स्थिरतर करने का आशय है ।
सत्संग से निस्तरंग अवस्था का कारण जीव परिणामी स्वभाव वाला है । जब वह शुभाशुभ परिणाम में परिणमित होता है तब वह शुभाशुभ होता है एव जब शुद्ध परिणाम में परिणमित होता है तब वह शुद्ध होता है । श्री नमस्कार मन्त्र जीवन को शुभाशुभ परिणाम मे परिणमित होने से रोक शुद्ध परिणाम मे परिणमित करता है । अतः नमस्कार का एक अर्थ शुद्ध स्वभाव मे परिणमन भी है। नमन का अर्थ है परिणमन । श्री अरिहतादि परमेष्ठिनो के शुद्धस्वरूप के पालम्वन से अपनी आत्मा का शुद्ध परिणमन कारक होने से श्री नवकार मन्त्र जीव को मुक्ति प्रदान करने