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है अथवा सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित्र एव तपगुरण के चाहने वाले के लिए पांच पदो का नमस्कार अनिवार्य है। देव को किया हुआ नमस्कार दर्शन गुरण को विकसित करता है एवं धर्म को किया हुआ नमस्कार चारित्र गुरण तथा तपगुण को विकसित करता है । सम्यक् दर्शन एव सम्यक् जान सहित साधित तपसयमरूप धर्माराधना ही मुक्ति फल को देती है। उसका अर्थ है देव गुरु के नमस्कारपूर्वक साधित धर्म क्रिया ही मोक्ष का कारण वनती है अथवा पाँचो परमेष्ठि चारोगुणो को धारण करने वाले होने से पांचो को किया हुआ नमस्कार चारो गुणो को विकसित करता है।
एगम्मि पूईए सव्वे ते पूईया होंति जैसे एक की पूजा में सवकी पूजा है वैसे एगम्मि हीलिये सव्वे ते हीलिया होति ।
एक की अवहेलना सव की अवहेलना है। इस प्रकार गत प्रत्यागत अथवा अनुवृत्ति व्यावृत्ति कार्यसिद्धि करते है। सम्यक् दर्शनादि चार गुणो को धारण करने वाले कोई एक परमेष्ठि को किया हुआ नमस्कार पाचों को ही नमस्कार है। जिस प्रकार यह बात सत्य है वैसे ही चतुर्ग गधारी इन पांचों में से किसी एक को किए हुए अनमस्कार का परिणाम भी पांचो को किया हुआ अनमस्कार होता है । गुणो के समान एक को भी अनमस्कार तत्त्वत सबको अनमस्कार है । जैसे साधु गुण सयुक्त एक साधु को भी किया हुआ नमस्कार अढाई द्वीप मे स्थित सभी साधुओ को पहुँचता है वैसे ही साधुगुण युक्त एक को भी अनमस्कार भाव सभी के प्रति अमनस्कार भावतुल्य है । परमेष्ठि की अवज्ञा नही करनी चाहिये तभी वह नमस्कार विवेकयुक्त होता है। उपर्युक्त प्रकार से विचार करने से स्पष्ट होता है कि चतुर्गुण के इच्छक को पांचो पदो का नमस्कार आवश्यक है।