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तात्त्विक भवनिर्वेद एवं मोक्षाभिलाष
उपकारी के प्रति कृतज्ञता एव अपकारी के प्रति क्षमापना सिखाने वाला मंत्र 'नमामि' एवं 'खमामि' है ।
व्यवहारधर्मं का बीज कृतज्ञता एवं क्षमापना है । कृतज्ञता से उत्पन्न क्षमापन के मूल बहुत गहरे होते हैं। जितना उपकार मैं प्राप्त करता हूँ उतना उपकार में दूसरो के प्रति नही कर सकता हूँ इस खेद से उत्पन्न क्षमापना जीव को अत्यन्त शुद्ध पवित्र कर देती है । उपकारियो के उपकार का वदला मे नही चुका सकता हूँ । यह बदला तभी चुक सकता है जबकि मैं जितनों का उपकार लेता हूँ, उससे भी अधिक उपकार दूसरो के ऊपर करूँ । ससार मे यह संभव नही है । अतः श्चनन्त काल पर्यन्त जहाँ परोपकार ही हो सके ऐसे सिद्ध पद को प्राप्त करने की तीव्र उत्कठा उत्पन्न होती है । उसी का नाम तात्त्विक भवनिर्वेद एवं तात्त्विक सवेगमोक्षाभिलाष है । ससार में जितना उपकार लिया है उतना दिया नही जाता । फिर वह उपकार भी अपकार मिश्रित होता है। शुद्ध उपकारतो सिद्ध पद मे है कि जो उपकार लेता नही, अपकार करता नही एव अनन्त काल तक अपने श्रालम्वन से अनन्त जीवो के लिए सतत उपकार ही करता है । अत उत्तम जीवो को एक सिद्धपद ही परम प्रिय एव परम उपादेय प्रतिभासित होता है ।
एक में सब एवं सब में एक
नमस्कार मे नो पद समाविष्ट हैं । श्री अरिहत एवं सिद्धो के नमस्कार से सम्यकदर्शन, श्री आचार्यों के नमस्कार से सम्यक् चरित्र, श्री उपाध्यायो के नमस्कार से सम्यक् ज्ञान एव श्री साधु के नमस्कार से सम्यक्तपगुरण का आराधन होता
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