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इच्छायोग मे योगावचकता की प्राप्ति, शास्त्रयोग से क्रियावचकता की प्राप्ति एव सामर्थ्ययोग से फलावचकता की प्राप्ति होती है। तीनो प्रकार के अवचकयोग प्रथम पद के आराधक को क्रमश. प्राप्त होते हैं ।
यही कारण मे कार्य का उपचार कर प्रथम पद की आराधना के इच्छायोग, शास्त्रयोग एव सामर्थ्ययोग के नाम घटित होते हैं । फलस्वरूप सद्गुरु की प्राप्ति रूपी योगावचकता, उनकी प्राजा का पालन रूपी क्रियावचकता एव उसके फलस्वरूप परम पद की प्राप्ति रूपी फलावचकता भी घटित होती है।
हेतु स्वरूप एवं अनुबन्ध से शुद्ध लक्षण
वाला धर्मानुष्ठान
सद्नुष्ठान का सेवन ही धर्म का हेतु है, परिणाम की विशुद्धि ही धर्म का स्वरूप है व जव तक इहलोक परलोक के सुखदायक फल तथा मुक्ति प्राप्त नहीं होते तब तक पुन पुन सद्धर्म की प्राप्ति रूप अनुवन्ध ही धर्म का फल है । नमस्कार मन्त्र व उसके प्रथम पद के आराधक को इन तीनो वस्तुओ की प्राप्ति होती है । अत. वह हेतु स्वरूप तथा अनुबन्ध से शुद्ध लक्षण वाला धर्मानुष्ठान बनता है। शास्त्रो मे धर्म का स्वरूप नीचे माफिक कहा गया है-- .
वचनाद्यदनुष्ठानमविरुद्धाद्यथोदितम् ।
मैत्र्यादिभावसंयुक्त , तदुर्म इति कीर्त्यते । पूर्वापर अविरुद्ध वचन का अनुमरण कर, मैन्यादि भावयुक्त यथोक्त अनुष्ठान को धर्म कहा गया है। नवकार की आराधना अविरुद्व वचनानुसारी है, सभी प्रकार के गुण स्थानको मे स्थित जीवों को उनकी योग्यतानुसार विकास